Friday, 17 January 2025

चुनावी निष्पक्षता...

चुनाव निष्पक्षता पर विपक्ष की 
आशंकायें दूर करेगा चुनाव आयोग?
0 चुनाव की निष्पक्षता और सब दलों को समान अवसर उपलब्ध कराना चुनाव आयोग की संवैधानिक ज़िम्मेदारी होती है। इतना ही नहीं चुनाव की प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनाये रखना सरकार का भी कानूनी उत्तरदायित्व है। लेकिन जिस मनमाने ढंग से पिछले दिनों चुनाव आयोग ने दिल्ली राज्य के चुनाव का एलान करते हुए सवालों के जवाब दिये उससे यह प्रक्रिया शक के दायरे में आ गयी है। इसके साथ ही विपक्ष जिस तरह से इवीएम पर बार बार उंगली उठा रहा है, वह भी हमारे संविधान लोकतंत्र और चुनाव आयोग की ईमानदारी के लिये चिंता का विषय है। गोदी मीडिया की सरकार की एकतरफा पैरवी की वजह से कुछ वाजिब और जायज़ सवाल पूछे ही नहीं गये। नहीं तो दिल्ली में सत्ताधारी दल आम आदमी पार्टी के आरोपों पर स्पश्टीकरण सामने आ सकता था। *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      चुनाव आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने पिछले दिनों

दिल्ली में प्रैस वार्ता के दौरान हरियाणा और महाराष्ट्र राज्यों के चुनावों को लेकर विपक्ष के लगाये गये तमाम आरोपों को बिना किसी प्रमाण आंकड़ों और तथ्यों के सामने रखे ज़बानी तौर पर नकार दिया। इसके साथ ही उन्होंने दिल्ली के आगामी चुनाव को लेकर पक्ष विपक्ष के लगाये जा रहे बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम काटने और फर्जी वोटर्स के नाम जोड़ने के मुद्दे पर ज़बान बंद रखी। विपक्ष का सवाल रहा है कि महाराष्ट में लोकसभा चुनाव में कुल 9 करोड़ 28 लाख वोट 6 माह बाद ही विधानसभा चुनाव में 9 करोड़ 77 लाख कैसे हो गये? इसके बाद मतदाता सूची में नये मतदाता बनाने और पुरानों के नाम काटने को लेकर दिल्ली में आप सावधान हो गयी है। 
      उसका दावा है कि महाराष्ट्र में भाजपा ने 50 लाख नये मतदाता जोड़कर चुनाव लिस्ट मंे गड़बड़ी की है? दिल्ली में भी संसदीय चुनाव के मुकाबले होने जा रहे असैंबली चुनाव की वोटर लिस्ट में 8 लाख मतदाता बढ़ गये हैं। इसके साथ ही लोकसभा और विधानसभा चुनाव में वोटों में भी वहां 75 लाख वोटर्स का भारी अंतर है। यह माना जा सकता है कि कंेद्र और राज्य के चुनाव में लोगों का अलग अलग रूजहान होता है जिससे विधानसभा में वोट देने वाले वोटर्स की तादाद बढ़ सकती है लेकिन चुनाव आयोग नये मतदाता इतनी बड़ी संख्या में बढ़ने का कोई सटीक जवाब नहीं दे पाया है। उसका दावा है कि उसने नये मतदाता बनाने को जो अभियान चलाया यह उसका नतीजा है। सवाल यह भी उठता है कि चुनाव आयोग के द्वारा ऐसा अन्य राज्यों में क्यों नहीं किया गया? चुनाव आयोग इस सवाल का भी कोई सही जवाब नहीं दे पाया कि वहां शाम 5 बजे से रात 11 बजे तक इतना ज़बरदस्त वोटर टर्नआउट कैसे बढ़ा? इस शक को दूर करने के लिये वोटिंग की वीडियोग्राफी देखी जा सकती थी लेकिन यहां तो चुनाव आयोग ने हाल ही में नियम बदलकर यह वीडियोे फुटेज देखने पर ही रोक लगा दी है। जिससे विपक्ष का शक और भी गहरा गया है। दिल्ली के चुनाव आयुक्त ने खुद कहा है कि जिस तरह से 30 दिन में 5 लाख नये लोगों ने मत बनवाने के लिये आवेदन किया है उससे सघन जांच की आवश्ययकता है क्योंकि यह अप्रत्याशित है। आप का आरोप है कि लगभग हर विधानसभा क्षेत्र में 10 प्रतिशत वोट नये बनाने और साढे़ 5 प्रतिशत लोगों के वोट काटने के आवेदन आ रहे हैं। संदेह बढ़ाने वाली बात यह है कि जिनके नाम से ये आवेदन आये हैं उनसे संपर्क करने पर वे अपना नाम उनकी जानकारी बिना फर्जी तरीके से प्रयोग करने की बात बता रहे हैं। अजीब बात यह भी है कि ऐसी 4183 एप्लीकेशन मात्र 84 लोगों की तरफ से लिखी गयी हैं। 
     चुनाव आयोग का इस पर कहना है कि बिना ठोस सबूत के किसी का वोट नहीं काटा जाता। लेकिन नये वोट बनाने को लेकर वह उदार रहा है इसके बारे में आयोग कोई संतोषजनक उत्तर नहीं देेेे पा रहा है? जब चुनाव आयोग के बीएलओ घर घर मुहल्ले मुहल्ले जाकर पहले ही गलत वोट काटने और नये जोड़ने का अभियान चला चुके हैं तो नई एप्लीकेशन वोट काटने और जोड़ने के लिये इतने बड़े पैमाने पर कहां से आ रही हैं? चीफ इलैक्शन कमिश्नर राजीव कुमार ने शेर ओ शायरी करते हुए विपक्ष के आरोप हवा में उड़ाते हुए यहां तक कह दिया कि शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था। आप का यहां तक दावा है कि पिछले चुनाव में उनकी पार्टी को 49 लाख से अधिक वोट मिले थे। जिनमें से 9 लाख वोट काटे जा रहे हैं। दूसरी तरफ केजरीवाल का कहना है कि भाजपा इतने ही नये फर्जी वोटर जोड़कर अपने पिछली बार के 35 लाख वोटर को 44 लाख पहुंचाना चाहती है। लेकिन चुनाव आयोग इन गंभीर आरोपों पर चुप्पी साध रहा है। इवीएम को लेकर भी विपक्ष उंगली उठाता रहा है लेकिन आयोग उस पर भी बात नहीं करता है। दरअसल इंडिया गठबंधन सभी इवीएम का सौ प्रतिशत वीवीपेट से मिलान की व्यवस्था चाहता है। वीवीपेट यानी वोटर वेरिफियेबिल पेपर आॅडिट ट्रायल वो सिस्टम है जिसमें मतदाता जब अपना वोट इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में बटन दबाकर डालता है तो पास में रखी एक अन्य मशीन वीवीपेट में यह दिखता है कि वोटर ने अपना वोट जिस प्रत्याशी को कास्ट किया वह उसी को गया। इवीएम को लेकर आज इंडिया विपक्ष या कांग्रेस ही नहीं एक समय था जब खुद भाजपा भी संदेह जताती थी। आईटी से जुड़े उसके वरिष्ठ नेता नरसिम्हा ने तो इवीएम के खिलाफ बाकायदा लंबा अभियान चलाते हुए एक किताब तक लिख दी थी। 
      इवीएम में गड़बड़ी होती है या नहीं इस बारे में तब तक कोई दावे से नहीं कह सकता जब तक कि इस आरोप को सही साबित नहीं कर दिया जाता। हालांकि जानकार दावा करते हैं कि जिस मशीन या चिप को नेट से नहीं जोड़ा गया है उसको हैक नहीं किया जा सकता लेकिन तकनीकी विशेषज्ञ इस मुद्दे पर अलग अलग राय रखते हैं कि किसी भी इलैक्ट्राॅनिक डिवाइस को इस तरह से सेट किया जा सकता है कि उसमें पड़ेे वोट इधर से उधर कर दिये जायें। यही वजह है कि अमेरिका इंग्लैंड और कई यूरूपीय देशों सहित विदेशों में चुनाव वापस बैलेट पेपर से कराये जाने लगे हैं। हालांकि इससे यह साबित नहीं होता कि इवीएम में गड़बड़ी हो रही थी लेकिन इतना ज़रूर है कि उन देशों ने अपनी जनता और सभी दलों को विश्वास में लेने और चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने को यह कदम उठाया है।
0 उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़,
 हमें यक़ीं था हमारा क़सूर निकलेगा।।        
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

90 घंटे काम क्यों...

90 घंटे चाहिये काॅरपोरेट को काम, 
कंपनी का लाभ, देशहित का नाम !
0 एल एंड टी के चेयरमैन एस एन सुब्रहमण्यन ने कामगारों को 90 घंटे काम करने का उपदेश दे दिया है। वे अपने कर्मचारियों को शनिवार को छुट्टी नहीं देते हैं। वे चाहते हैं कि उनके कामगार संडे को भी काम करें। उधर स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि इतना अधिक काम करना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है। मेडिकल एक्सपर्ट दावा करते हैं कि आजकल पहले ही युवाओं पर इतना काम का बोझ है कि उनको इसके तनाव के चलते हार्ट अटैक ब्लड पे्रशर और डायबिटीज़ की समस्याओं का बहुत कम उम्र में ही सामना करना पड़ रहा है। साथ ही ट्रेड यूनियन वामपंथी और सामाजिक संगठन भी मूर्ति और सुब्रहमण्यन की इस सलाह को युवाओं का आर्थिक और मानसिक शोषण करने वाला पूंजीवादी सोच का नमूना बताकर विरोध में उतर आये हैं।      
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
       पूंजीवाद की सबसे बड़ी बुराई यही है कि यह पूंजी बढ़ाने यानी लाभ को ही सब कुछ मानकर चलता है। जबकि इंसान एक सामाजिक प्राणी है जिसे रोज़ी रोटी यानी आमदनी के साथ ही भावनाओं आस्थाओं  मनोरंजन मानवता सामाजिकता संवेदनशीलता परिवार प्यार मुहब्बत सेवा अध्ययन गीत संगीत साहित्य घूमने फिरने गपशप हंसी मज़ाक आराम रिश्ते नातों के लिये भी समय चाहिये। चालाकी और धूर्तता यह कि कारपोरेट कम से कम पैसे में अधिक से अधिक काम अपनी कंपनी के लिये लेकर इसे देश के लिये बताकर कामगारों का खून चूसना चाहता है। ऐसे दौर मंे जब वर्क लाइफ बैलेंस पर राष्ट्रीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक जमकर बहस चल रही है, लाॅर्सन एंड टुब्रो के मुखिया से यह भी पूछा जाना चाहिये कि उनकी सेलरी तो सालाना 51 करोड़ है, जो उनकी कंपनी के कर्मचारियों के वेतन से 543 गुना अधिक है। उनका कहना है कि जो लोग संडे की छुट्टी करते हैं वे घर पर अपनी पत्नी को निहारकर क्या हासिल कर लेते हैं? उनको शायद यह पता नहीं कि और भी ग़म हैं ज़माने में काम के सिवा। एक फिल्मी गीत के बोल हैं- तेरी दो टकिया की नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाये। ऐसे लोगोें को धनपशु कहा जाता है जिनको जीवन में पैसे के सिवा कुछ नज़र ही नहीं आता या धन दौलत ही सबकुछ लगता है। ऐसे लोगों का बस चले तो ये ज़मींदारी या सामंतवादी युग की तरह से मज़दूरों के गले में बेड़िया डालकर उनसे दिन रात काम करायें और उनको केवल जिं़दा रहने के लिये 24 घंटे में दो रूखी सूखी रोटी ही दें। यानी इंसान नहीं इनको गुलाम चाहिये। चर्चा यह भी है कि 90 घंटे काम की बिना मांगे सलाह देने वाले काॅरपोरेटर सर के पास केंद्र सरकार की जल शक्ति योजना का अरबों रूपये का टेंडर है और ये काॅन्ट्रैक्टर्स से काम पूरा कराकर उनका पैसा पूरा और समय पर ना देने के लिये भी बदनाम हैं। यही वजह है कि लेबर टैक्सटाइल्स पर संसद की स्थायी समिति के सदस्य और सीपीआई एमएल के बिहार से सांसद राजाराम सिंह ने श्रम मंत्री को पत्र लिखकर 90 घंटे काम का विरोध करते हुए कहा है कि अधिक समय काम करने से प्राॅडक्टिविटी बढ़ने की जगह घट जाती है। उन्होंने यह भी कहा कि सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाना चाहिये क्योंकि ऐसा करना श्रम कानून का उल्लंघन होगा। 
     1921 में इंटरनेशनल लेबर आॅर्गनाइजेशन के मुताबिक सप्ताह में 48 घंटे काम का अंतर्राष्ट्रीय नियम बनाया गया था। 1935 आते आते दुनिया के विकसित और सभ्य देशों ने काम के घंटे घटाकर 40 कर दिये और आज ये सम्पन्न और समृध्द देशों में 29 से 35 तक आ चुके हैं। मिसाल के तौर पर अधिक उत्पादकता और बेहतर अर्थव्यवस्था के हिसाब से नार्वे सबसे आगे है लेकिन यहां कामगार 35 घंटे ही काम करते हैं। ऐसे ही 29 घंटे तक काम लेने वाले आॅस्ट्रिया फ्रांस और डेनमार्क में भी सबसे अच्छा रिर्टन मिलता है। 90 घंटे काम की सलाह देने वाले यह नहीं सोचते कि भारत में 90 प्रतिशत मज़दूर असंगठित क्षेत्र में हैं। श्रम पोर्टल पर केवल 28 करोड़ कामगार दर्ज हैं। इनमें से 94 प्रतिशत की आमदनी 10 हज़ार से भी कम है। जबकि ये सप्ताह में सातों दिन 10 घंटे से अधिक काम करते हैं। ढाबों होटलों और हलवाई की दुकान पर मज़दूर 12 से 14 घंटे तक काम करते हैं। लेकिन उनको पर्याप्त पैसा नहीं मिलता। आई एल ओ की अपै्रल 2023 की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत घंटों के हिसाब से काम में दुनिया में सातवें स्थान पर है। घामिया भूटान और कांगों जैसे देशों का स्थान इस रैंकिंग मेें भारत से पहले आता है। इन छोटे देशों में लोग 50 घंटे तक काम करते हैं। लेकिन खराब अर्थव्यवस्था की वजह से यहां अधिक घंटे काम करने के बाद भी लोगों को वेतन बहुत कम मिलता है। इसकी वजह इन देशों की उत्पादकता कम और गरीबी अधिक होना माना जाता है। यही कारण है कि भारत प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया में 140 वें स्थान पर है। इससे यह पता चलता है कि अधिक मेहनत करने के बाद भी लोगों को पूरा या अधिक वेतन नहीं मिलता है। यह बात किसी हद तक सही है कि राष्ट्र निर्माण अनुशासन और समर्पण मांगता है लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे देश में काम करने वाले योग्य और प्रतिभाशाली युवाओं की कमी है जो उन ही लोगों से अधिक काम करने की अपील कर रहे हैं जिनपर पहले ही कम वेतन में अपने टारगेट पूरा करने का जानलेवा दबाव है। 
       कंपनियों के चेयरमैन डायरेक्टर एमडी और दूसरे सलाहकार सप्ताह में कितने घंटे काम करते हैं? यह भी पूछा जाना चाहिये कि उनकी सेलरी कई गुना क्यों बढ़ रही है? इंफोसिस के सीईओ की कमाई ही कंपनी के नये कर्मचारी से 2200 गुना अधिक है। 2008 में कंपनी के सीईओ का वेतन 80 लाख और किसी नये भर्ती कर्मचारी का वेतन 2.75 लाख था। मनी कंट्रोल की रिपोर्ट बताती है कि 10 साल बाद यह सौ गुना बढ़कर जहां 80 करोड़ हो गया वहीं नये भर्ती कर्मचारी का वेतन केवल 3.60 लाख ही हुआ क्योें? एक सप्ताह में तो मात्र 168 घंटे ही होते हैं। ऐसे में किसी सीईओ को कितने गुना बढ़े घंटे काम करने की सलाह देंगे और कैसे देंगे? क्योंकि 2.75 लाख वाले कर्मचारी को तो उन्होंने 3.60 लाख सेलरी होने पर पहले से डेढ़ गुना से अधिक काम करने की सलाह दे दी लेकिन यही देशभक्ति और भारत को विकसित राष्ट्र बनाने की सलाह सीईओ को क्यों नहीं दे रहे? क्या यह सब कंपनी का मुनाफा बढ़ाने की सोची समझी कवायद का हिस्सा तो नहीं? पश्चिमी देश आज अधिक काम से नहीं बल्कि तकनीक आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस व रोबोटिक्स से गुणात्मक विकास को बढ़ा रहे हैं। साथ ही वे अपने यहां शोध पर अधिक धन खर्च कर रहे हैं। उल्टा हमारे देश में 2008 में शोध पर खर्च होने वाला पैसा 0.8 प्रतिशत से घटाकर 0.7 कर दिया गया है। 1886 में अमेरिका के शिकागो शहर में काम के बढ़े घंटे कम करने की मांग को लेकर एतिहासिक संघर्ष होने के बाद मानवीय सामाजिक और नैतिक आधार पर कारखाने वाले नौकरी के घंटे कम करने को तैयार हुए थे। आज फिर वही पूंजीवाद राजनैतिक दलों को मोटा चंदा देकर उनके सत्ता में आने पर कई देशों में अपने हिसाब से काम के घंटे और रोज़गार की कठिन शर्ते बनवा रहा है। मज़दूरों का तो मशहूर नारा ही रहा है कि 8 घंटे काम के 8 घंटे आराम और 8 घंटे सामाजिक सरोकरा के चाहिये।
0 जिनके आंगन में अमीरी का शजर लगता है,
  उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है।।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday, 2 January 2025

भागवत का विरोध

भागवत की संघ परिवार नहीं मानता, कोई विपक्षी यह सच नहीं मानता!
0 आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों कहा था कि राम मंदिर निर्माण के बाद कुछ लोग ऐसे ही अनेक विवादित मुद्दे उठाकर हिंदुओं के नेता बनने का असफल प्रयास कर रहे हैं। इस बयान का जहां सेकुलर लोगों ने स्वागत किया वहीं संघ परिवार से जुड़े अनेक कट्टर हिंदूवादी नेता इसके खिलाफ़ खुलकर सामने आ गये। इतना ही नहीं संघ का माउथ पीस समझे जाने वाला अंग्रेज़ी अख़बार आॅर्गनाइज़र तक इस बयान से असहमति जताते हुए लिखता है कि यह सोमनाथ से संभल और उससे आगे तक इतिहास की सच्चाई जानने और सभ्यतागत न्याय हासिल करने की लड़ाई है। ऐसा संभवतया पहली बार हुआ है कि संघ प्रमुख की बात पर संघ परिवार में ही मतभेद सामने आये हैं जबकि विपक्षी दलों का कहना है कि वे इसको सच नहीं मानते।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सोच से पूरा देश परिचित है। भाजपा आज जहां है उसमें संघ का ही सबसे बड़ा योगदान है। कई बार जब भाजपा की सरकारें या पीएम मोदी लक्ष्मण रेखा लांघते हैं तो संघ उनको ब्रेक लगाने की कोशिश करता है। बताते हैं कि लोकसभा चुनाव में भी जब भाजपा के मुखिया जे पी नड्डा ने एक अंग्रेज़ी दैनिक को दिये इंटरव्यू में कहा कि भाजपा को अब संघ की ज़रूरत नहीं है तो संघ को यह बहुत बुरा लगा और उसने चुनाव में उतना काम नहीं किया जितना वह पहले करता रहा है। बाद में दावा किया गया कि इसी वजह से 400 पार का दावा कर रही भाजपा साधारण बहुमत से भी पीछे रहकर 240 पर अटक गयी। इसके बाद भागवत का बयान आया कि सच्चे स्वयंसेवक को अहंकार नहीं करना चाहिये। यह इशारा मोदी की तरफ माना गया। इसके बाद संघ और भाजपा में बैठकर बात हुयी और गिले शिकवे दूर कर हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में संघ ने पहले की तरह खुलकर काम कर भाजपा को जीत दिलाई। हालांकि संघ विरोधी और विपक्षी दल इस सब कवायद को मिली जुली कुश्ती मानकर चलते हैं। उनका कहना है कि संघ अलग अलग मौको पर अलग अलग बयान देकर सोची समझी योजना के तहत भाजपा को संकट से बचाता है। संघ को जानने वाले यह भी दावा करते हैं कि संघ कभी कभी भाजपा के खिलाफ या अपनी ही परंपरागत सोच से अलग बोलकर विपक्ष का स्पेस छीनना चाहता है। 
मिसाल के तौर पर भागवत इससे पहले भी कह चुके हैं कि राम मंदिर का मामला अलग था, वह सुलझ चुका है। अब हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग तलाश करना ठीक बात नहीं है। वह एक मौके पर हिंदू मुसलमान दोनों का डीएनए एक ही बता चुके हैं। उनका कहना है कि देश में दोनों धर्म के लोग लंबे समय से आपसी सौहार्द से रहते आ रहे हैं। अगर हम दुनिया के सामने मिलजुलकर रहने का एक आदर्श रखना चाहते हैं तो हमें खुद ऐसा करके एक माॅडल विश्व के सामने पेश करना होगा। उनका दो टूक कहना था कि राम मंदिर के निर्माण के बाद कुछ लोगों को लगता है कि वे ऐसे ही विवादित मंदिर मस्जिद के दूसरे मिलते जुलते मुद्दे उठाकर हिंदुओं के नेता बन सकते हैं जबकि यह स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इतिहास गवाह है कि राम मंदिर का आंदोलन धार्मिक ना होकर राजनीतिक था। जिसकी वजह से आज भाजपा सत्ता में है। 
14 अप्रैल 2000 को भाजपा नेत्री स्व. सुषमा स्वराज ने भोपाल में यह बात स्वीकार भी की थी। हालांकि संघ यह सच स्वीकार नहीं करता है लेकिन वह राम मंदिर आंदोलन की तरह कोई दूसरा आंदोलन देश में खड़ा होने या उसके बहाने संघ को बाईपास कर भाजपा की राजनीति परवान चढ़ने से भी डरता है। हालांकि कुछ लोग यह भी दावा करते हैं कि संघ प्रमुख ने यह बयान देश में इस तरह के धार्मिक विवाद थोक में सामने आने से भारत की छवि विश्व में खराब होने और खासतौर पर मुस्लिम मुल्कों में काम कर रहे लाखों हिंदुओं को परेशानी से बचाने के लिये दिया है। इसके साथ ही राजनीति के जानकार यह भी आरोप लगाते हैं कि भाजपा के वोटबैंक में ही एक वर्ग आयेदिन मंदिर मस्जिद के अनेक विवाद सामने आने से देश में शांति खतरे में पड़ने हिंसा होने और देश की छवि खराब होने से व्यापार को हो रहे नुकसान से संघ और भाजपा से खफा होता जा रहा है। इसका अंदाज़ इससे मिलता है कि भाजपा को अगर अपने हिंदू मुस्लिम के एजेंडे पर ही चुनावी जीत का विश्वास होता तो वह लाडली बहना जैसी योजनाओं की रेवड़ी बांटने का काम हर राज्य में शुरू नहीं करती। इसके साथ ईवीएम में हेरफेर विरोधी दलों के समर्थक वोट काटने भाजपा समर्थकों के फर्जी वोट मतदाता सूचियांे में जोड़ने कुल डाले गये वोट से अधिक वोट गिने जाने और नकद धन बांटकर वोटर्स को लुभाने के ढेर सारे आरोप विपक्ष उस पर नहीं लगाता या फिर चुनाव आयोग इन आरोपों को गंभीरता से लेकर अपनी विश्वसनीयता बहाल करने जनता का भरोसा लोकतंत्र में कायम करने और अपनी निष्पक्षता बनाये रखने के लिये इस तरह के आरोपों का गंभीर तथ्यपूर्ण और प्रमाणिक जवाब देकर वीवीपेट की गिनती कराने की विपक्ष की मांग स्वीकार कर खुद के स्वायत्त और स्वतंत्र होने का भरोसा दिलाता। 
      भागवत के बयान का अगर कोई धार्मिक नेता विरोध करे तो समझ में आता है लेकिन जब वही लोग खुलकर विरोध करने लगें जिनको संघ ने अब तक खाद पानी देकर पाला पोसा है तो यही माना जायेगा कि या तो भागवत ऐसा औपचारिक बयान देकर केवल दिखावा कर रहे हैं या फिर साम्प्रदायिकता कट्टरता और संकीर्णता का जो जिन्न उन्होंन सौ साल में बोतल से बाहर निकालकर बड़ा आकार दे दिया है वह अब वापस बोतल में जाने वाला नहीं है। वैसे भी विपक्ष का आरोप रहा है कि संघ में लोकतंत्र का अभाव है। उसका दावा है कि वहां कोई आॅनपेपर सदस्यता नहीं है। उसके मुखिया का कोई चुनाव सार्वजनिक रूप से नहीं होता है। वह अपना बाकायदा कोई संविधान या रिकाॅर्ड भी नहीं रखता है। वहां इलैक्शन नहीं स्लैक्शन होता है। संघ प्रमुख जो कहते हैं वही अंतिम और सब कुछ है। असहमति या विरोध के लिये कोई जगह नहीं है। लेकिन आज जो कुछ हो रहा है उससे लगता है कि अब हालात भागवत यानी संघ की पकड़ से बाहर निकलते जा रहे हैं। आने वाला समय संघ और भाजपा के साथ कट्टर और उदार हिंदुओं के शक्ति परीक्षण का होगा। भागवत पहली बार अपने विरोध की अपनों की ही आवाज़ो पर एक बार को ज़रूर सोच रहे होंगे।
0 फूल था मैं मुझको कांटा बनाकर रख दिया,
 और अब कांटे से कहते हैं कि चुभना छोड़ दे।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 26 December 2024

आंबेडकर को मानते हैं?

*डा. अंबेडकर को अगर मानते हैं, 
उनके संविधान को क्यों नहीं मानते?*
0 पिछले दिनों संसद में बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर को लेकर ज़ोरदार बहस हुयी। सरकार और विपक्ष दोनों यह दिखाने की कोशिश कर रहे थे जैसे उनसे बड़ा अंबेडकर का चाहने वाला कोई दूसरा नहीं हो सकता। लेकिन सच यह है कि बाबा साहब के नाम पर उनकी मूर्ति और संविधान को लेकर बड़े बड़े दावे करने वाले विभिन्न दल और नेता अंबेडकर के विचारों उसूलों और उनके बताये रास्ते पर चलने को तैयार नहीं हैं। खासतौर पर मोदी सरकार और राज्यों की भाजपा सरकारों ने अंबेडकर को लेकर बहुत आडंबर किये हैं। इसके पीछे दलित समाज को खुश करने का नाटक अधिक रहा है। लेकिन बाबा साहब ने भारत का जो संविधान बनाया था। उस पर कोई चलने को तैयार नहीं है। यह ठीक ऐसी ही बात है जैसे हिंदू समाज पूरे विश्व को एक परिवार बताता है। लेकिन जब वर्ण व्यवस्था और अल्पसंख्यकों का सवाल आता है तो इसका एक बड़ा वर्ग उनके खिलाफ खुलेआम खड़ा हो जाता है। ऐसे ही मुसलमान इस्लाम की बड़ी बड़ी बातें करते हैं। लेकिन जब अमल की बात आती है तो पैगंबर का सब्र और सुलह का रास्ता छोड़कर कई जगह कुछ कट्टरपंथी मुसलमान उग्र होकर खुद मुसीबत मोल ले लेते हैं।    
*-इकबाल हिंदुस्तानी*
कहने को हमारे देश में लोकतंत्र है। चुनी हुयी सरकारें हैं। पुलिस है। कोर्ट हैं। जांच एजेंसियां हैं। मीडिया हैं। संविधान है। चुनाव आयोग सूचना आयोग मानव अधिकार आयोग अल्पसंख्यक आयोग सीबीआई और ईडी जैसी कथित स्वायत्त संस्थायें हैं। यानी कानून का राज बताया जाता है। लेकिन वास्तव में क्या सब नागरिकों के अधिकार समान हैं? व्यवहार में तो ऐसा बिल्कुल भी नजर नहीं आता है। विडंबना यह है कि हमारे पीएम सीएम एमपी एमएलए पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी सभी संविधान की शपथ लेकर अपने पद ग्रहण करते हैं। लेकिन हम देख रहे हैं कि कई मामलों में आयेदिन इस शपथ के विपरीत वे आजकल पूरी निडरता और क्रूरता से अन्याय पक्षपात अत्याचार का काम करने में हिचक नहीं रहे हैं। विधानमंडलों में पक्षपातपूर्ण कानून बनाने से लेकर पुलिस के द्वारा अपने विरोधी लोगों को टारगेट करने में अब उनको जरा भी लज्जा नहीं आती है। क्या संविधान इसकी इजाजत देता है? नहीं देता तो आप डा. अंबेडकर को काहे झूठमूठ की श्रध्दांजलि का नाटक करते हो? 
    एक नया संविधान विरोधी चलन देखने में आ रहा था कि अगर किसी पर दंगा या किसी अपराध का आरोप लगता है तो उस पर अपराध साबित होने से पहले ही पुलिस प्रशासन सत्ता में बैठे अपने आकाओं का राजनीतिक एजेंडा लागू करने के लिये उसके घर या दुकान व अन्य प्रोपर्टी पर बुल्डोजर चलवा देता था। क्या कानूनन बिना नोटिस दिये कोई सरकार ऐसा कर सकती है? संविधान से नहीं कर सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिन पहले ही इस तरह के मामलों पर कुछ हद तक रोक लगा दी है। इसके बाद भी यूपी में कुख्यात अपराधियों के नाम पर फर्जी मुठभेड़ में आरोपियों को मार डालना और कई के पांव में गोली मारकर हाफ एनकाउंटर कर देना अब आम बात हो चुकी है। ऐसे ही भीड़ द्वारा किसी पर भी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहंुचाने का आरोप लगाकर उसकी जान ले लेना अब सामान्य सा हो चुका है। क्या ये संविधान के हिसाब से सही है? नहीं तो बाबा साहब को कहां मान रहे हैं आप? आज दंगा होने पर एक वर्ग विशेष को सबक सिखाने और एक वर्ग विशेष को तुष्टिकरण कर उनसे थोक में वोट लेकर अनैतिक तरीके से चुनाव जीतने को यह सब सोची समझी योजना के तहत करने का विपक्ष का आरोप सही नजर नहीं आ रहा है? 
      अपवाद के तौर पर कभी कहीं हो जाता तो इन हरकतों को नजर अंदाज भी किया जा सकता था। लेकिन ऐसा एक दो बार नहीं एक दो राज्यों में नहीं कई राज्यों में एक पार्टी की सरकारें लगातार कर रही हैं तो क्या इसे कानून का राज कहा जा सकता है? हालांकि विपक्ष की सरकारें भी दूध की धुली नहीं हैं। कांग्रेस ने अपने 40 साल के एकक्षत्र राज में संविधान का खूब मज़ाक बनाया है। चुनी हुयी दर्जनों सरकारें अपने राजनीतिक स्वार्थ में बर्खास्त की हैं। अब भाजपा सरकार उससे भी कई गुना आगे निकलकर तमाम संविधान विरोधी काम खुलेआम कर रही है। क्या इसे संविधान का राज कहा जा सकता है? क्या ऐसा करने वाले बाबा साहब के समर्थक हो सकते हैं? बाबा साहब के संविधान के नाम पर साम्राज्यवादी मनमानी अत्याचारी अन्यायपूर्ण और पक्षपातपूर्ण शासन व्यवस्था लागू करने का काम कैसे किया जा सकता है? अब यह बात ढकी छिपी नहीं रह गयी है कि एक संस्था और एक दल खुलेआम एक वर्ग विशेष का दानवीकरण करने पर तुला है। इस वर्ग के खिलाफ धर्म संसद के नाम पर आयेदिन जहर उगला जा रहा है। 
     सुप्रीम कोर्ट के हेट स्पीच के खिलाफ सख़्त कानूनी कार्यवाही करने के बार बार आदेश के बावजूद सरकारें अव्वल तो इन मामलों का संज्ञान ही नहीं लेती। जब मामला कोर्ट में चला जाता है तो मजबूरन हल्की धाराओं मेें एफआईआर दर्ज की जाती हैं। इसके बाद सत्ता के इशारे पर जांच के नाम पर केस को कमजोर किया जाता है। नतीजा यह होता है कि कोर्ट से आरोपियों को जल्दी ही जमानत मिल जाती है। आरोपी फिर से अपने नफरत और झूठ फैलाने के मिशन में लग जाते हैं। दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों सेकुलर हिंदू दलितों और संघ परिवार की विचार धारा का विरोध करने वाले बहुसंख्यक वर्ग के लोगों के मामलोें मेें जरूरत से ज्यादा तेजी दिखाई जाती है। उनके मामलों में धारायें भी अधिक गंभीर लगाई जाती हैं। उनकी जमानतों का कोर्ट में लगातार विरोध किया जाता है। उधर कोर्ट जहां पहले छोटे छोटे मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर पिछली सरकारों से सखती से जवाब तलब करते थे। आजकल देखने में आ रहा है कि या तो सरकार के खिलाफ आने वाले केस सुनवाई के लिये लिस्टेड ही नहीं होते या फिर उन पर कोर्ट राहत देने में पहले जैसे उदार नहीं रहे हैं। 
   सुप्रीम कोर्ट के एक चीफ जस्टिस ने कहा था कि इंसाफ केवल होना ही नहीं चाहिये बल्कि होता हुआ नजर भी आना चाहिये। इतना तो साफ है कि आज न्याय हो भी रहा हो तो वह नजर नहीं आ रहा है। इतना ही नहीं सरकारों ने संविधान के खिलाफ काम करके भी विरोध के रास्ते बंद कर दिये हैं। मीडिया से लेकर कोर्ट चुनाव आयोग ईडी सीबीआई इनकम टैक्स कई बार सरकार का पक्ष लेते नज़र आते हैं। विपक्षी नेताओं को करप्शन का आरोप लगाकर पहले घेरा जाता है, डराया धमकाया जाता है फिर भी नहीं मानने पर उनको जेल भेज दिया जाता है, उनकी सम्पत्यिां ज़ब्त कर ली जाती हैं, जब वे भाजपा में आ जाते हैं तो उनकी एक एक हज़ार करोड़ की सम्पत्यिां वापस करने के साथ ही उनको पाक साफ घोषित कर विधायक सांसद मंत्री और उपमुख्यमंत्री के साथ सीएम तक बना दिया जाता है। क्या बाबा साहब के संविधान पर चलकर यह सब अनर्थ किया जा सकता है? तमाम सरकारी संस्थान निजी हाथों में सौंपकर आरक्षण खत्म किया जा रहा है? सरकारी पदों पर नियुक्तियों में खुलकर घोटाला बेईमानी गड़बड़ी भाईभतीजावाद जातिवाद और साम्प्रदायिकता का खुला खेल फरूखाबादी बेशर्मी से खेला जा रहा है। पक्ष हो या विपक्ष उनकी सरकारों का करप्शन पक्षपात भेदभाव अन्याय अत्याचार बेईमानी और झूठ कई बार साफ नज़र आता है लेकिन बाबा साहब की दुहाई देंगे।                                      
*0 उसके होंठों की तरफ ना देख वो क्या कहता है,*
*उसके क़दमों की तरफ देख वो किधर जाता है।।*
*0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर व पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Friday, 20 December 2024

प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट

*प्लेसेज़ आॅफ़ वर्शिप एक्ट का भाविष्य: 
कोर्ट नहीं सरकार का रूख़ तय करेगा?* 
0 देश में एक बार फिर मंदिर मस्जिद के कई विवाद खड़े होने लगे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने वक्ती तौर पर इन पर स्टे कर दिया है। कुछ लोगों को लगता है कि प्लेसेज़ आफ़ वर्शिप एक्ट के रहते इस तरह के विवाद खड़े ही नहीं होने चाहिये थे। कुछ लोग इस तरह के विवादों को तूल देने के लिये पूर्व चीफ़ जस्टिस चंद्रचूड़ की उस मौखिक टिप्पणी को मानते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि यह एक्ट किसी धर्म स्थल का स्वरूप बदलने से रोकता है लेकिन उसका सर्वे कर सच जानने से नहीं रोकता । इसका नतीजा यह हुआ कि बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे का रास्ता इस टिप्पणी से खुल गया। इसके बाद मथुरा की ईदगाह अजमेर की दरगाह और संभल की जामा मस्जिद से लेकर दिल्ली की जामा मस्जिद तक के सर्वे का मामला निचली अदालतों में पहंुच गया।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
1991 में जब पी वी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने प्लेसेज़ आॅफ़ वर्शिप एक्ट पास किया था तो उस टाइम मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं का एतराज़ यह था कि इसमें बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि को शामिल क्यों नहीं किया गया। जबकि यह मामला कोर्ट में विचाराधीन था और इसे भाजपा व संघ परिवार ने बहुत बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना रखा था जिससे इसको एक्ट से बाहर से रखा गया था। कम लोगों को पता होगा कि उस समय भाजपा ने इस एक्ट का भी यह कहकर विरोध किया था इससे हिंदुओं के आस्था पूजा और एतिहासिक धार्मिक धरोहरों को वापस पाने के मौलिक अधिकार का हनन होगा। लेकिन वह सत्ता में नहीं होने की वजह से इस कानून को पास होने से रोक नहीं सकी थी। आज हालात बदल चुके हैं। भाजपा तीसरी बार सत्ता में आई है। काफी लंबे समय से इस एक्ट को भाजपा की सोच से प्रभावित कुछ वकील सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते रहे हैं। कोर्ट इस एक्ट की संवैधानिकता को परखने के लिये केंद्र सरकार से उसका रूख कई बार जानने के लिये कई साल से समय दे रहा है। लेकिन मोदी सरकार इस पर चुप्पी साधे रही है। आमतौर पर किसी भी दल की सरकार सत्ता में हो संसद से पास हुए किसी भी कानून का बचाव वह करती रही है। लेकिन प्लेसेज़ आॅफ वर्शिप एक्ट के पक्ष में भाजपा शुरू से ही नहीं रही है। 
  इसलिये यह माना जा रहा है कि वह आज नहीं तो कल इसके खिलाफ अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संसद से पास कानून के विरोध की तरह कोर्ट में अपना पक्ष रख सकती है। वह इस एक्ट को खत्म भी कर सकती है। यह भी हो सकता है कि वह इसमें कुछ संशोधन करके हिंदुओं के लिये बहुत महत्व के चंद धार्मिक स्थलों को मस्जिद से बदलकर मंदिर करने के अभियान में कानून के स्तर पर सहयोग करने को खुलकर सामने आये। लेकिन इसमें यह भी आशंका है कि इस पर सुप्रीम कोर्ट अपनी मुहर लगाने से मना कर दे। यह अजीब बात है कि जो लोग इस एक्ट को बनाते हुए यह कहकर विरोध कर रहे थे कि इस एक्ट से बाबरी मस्जिद राममंदिर विवाद को बाहर नहीं रखा जाना चाहिये था। आज वही सबसे अधिक इस कानून का हवाला देकर कह रहे हैं कि इसमें साफ लिखा है कि जो धार्मिक स्थल 15 अगस्त 1947 में जिस स्वरूप में था जिसके पास था जिस धर्म का था वह वही रहेगा। यानी उसको बदला नहीं जा सकता, ऐसा इस एक्ट में लिखा है। इतना ही नहीं अब इस एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर मस्जिद विवाद में जो कुछ कहा था 
उसका वास्ता देकर भी याद दिलाया जा रहा है कि सबसे बड़ी अदालत ने न केवल यह माना था कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गयी थी बल्कि यह भी कहा था कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना सरासर कानून का उल्लंघन था। कोर्ट ने यह भी दोहराया था कि इतिहास में सैंकड़ो साल पहले अगर किसी धार्मिक स्थल को तोड़कर कोई दूसरा पूजा स्थल बना भी दिया गया हो तो इतिहास की उस गल्ती को अब सुधारा नहीं जा सकता। साथ ही यह भी कहा था कि यह काम कम से कम अदालतें तो बिल्कुल भी नहीं कर सकतीं। अदालत ने इस एक्ट को देश के धर्मनिर्पेक्ष स्वरूप को बनाये और बचाये रखने के लिये भी अपरिहार्य बताया था। इसलिये 1991 का प्लेसेज़ आॅफ़ वर्शिप एक्ट भविष्य में ऐसे किसी विवाद को पूरी तरह से रोकने के लिये सही बनाया गया है। आज इस एक्ट को यह कहकर ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है कि यह एक्ट हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करता है। यह भी कहा गया है कि यह एक्ट संविधान के खिलाफ बनाया गया है। यहां तक दावा किया गया है कि ऐसा कोई कानून बनाने का संसद को अधिकार ही नहीं था। 
     कुछ लोगों का कहना है कि धार्मिक स्थल जैसे के तैसे रखने की कट आॅफ डेट 15 अगस्त 1947 नहीं 1192 होनी चाहिये जब पृथ्वी राज चैहान जंग हार गये थे। इस पर कुछ लोग यह भी कहते हैं कि फिर तो यह तारीख 712 सन होना चाहिये जब मुहम्मद बिन कासिम पहली बार किसी मुस्लिम राजा के तौर पर भारत आया था। हो सकता है कि रिटायर्ड मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने विवादित धार्मिक स्थल का सर्वे करने से 1991 के इस कानून में कहीं भी नहीं रोकने की बात मौखिक रूप से सही कही हो लेकिन उस बात का न्यायिक निर्णय में कही चर्चा ना होेेेेने के बावजूद ऐसे विवादित मामले लोवर कोर्ट में दायर करने और उन पर सर्वे का आदेश जल्दबाज़ी में पास करने की बाढ़ आ गयी जिससे इस एक्ट का मकसद मंशा और मूल आत्मा ही ख़तरे में पड़ गयी। हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर स्टे करके उस भूल को सुधारा है। लेकिन इस एक्ट की संवैधनिकता और इस पर केंद्र सरकार के रूख के जाने बिना सुप्रीम कोर्ट किसी अंतिम निर्णय तक नहीं पहंुच सकता। जिससे देश में ऐसे विवादित मामले थोक में सामने आने और उन पर आपसी टकराव बढ़ने की तलवार अभी भी लटकी हुयी है। 
हालांकि यह भी ज़रूरी नहीं है कि केंद्र सरकार या याचिका कर्ताओं के मात्र यह कहने से सुप्रीम कोर्ट इस कानून को असंवैधनिक मानने को तैयार हो जाये कि इससे हिंदुओं के मौलिक पूजा के अधिकार का हनन होता है। लेकिन इतना ज़रूर है कि देश की एकता अखंडता और भाईचारा व शांति बनाये रखने के लिये यह एक्ट बहुत बड़ी चर्चा का विषय बन गया है। संभल मेें जामा मस्जिद के कोर्ट के दूसरी बार सर्वे के आदेश के बाद जो हिंसा हुयी जिसमें कई लोग मारे गये वह भी अफसोसनाक और निंदनीय है। लेकिन जब तक इस देश की जनता को यह बात समझ नहीं आती कि मंदिर मस्जिद के विवादों से राजनीति को लाभ होता है और जनता के असली मुद्दे दफन हो जाते हैं तब तक सुप्रीम कोर्ट से ही यह आशा की जा सकती है कि वह जनहित देशहित और मानवता के हित में इस तरह के मामलों पर स्थाई और ठोस रोक हमेशा के लिये लगा सकता है।
0 वक्त ऐसा कि बग़ावत भी नहीं कर सकते,
और ज़ालिम की हिमायत भी नहीं कर सकते।।
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 5 December 2024

बढ़ती आर्थिक असमानता

बढ़ रही है आर्थिक असमानता, पूंजीवाद इस सच को नहीं मानता!
0 जी 20 सम्मेलन मंे ब्राजील के पीएम लूला डी सिल्वा ने दुनिया में बढ़ती आर्थिक असमानता के लिये पूंजीवाद को ज़िम्मेदार बताते हुए बड़े कारापोरेट घरानों और पूंजीपतियों पर सुपर रिच टैक्स यानी सम्पत्ति कर की मांग की है। आपको याद दिलादें फिलहाल ब्राजील के पास ग्रुप 20 की अध्यक्षता है। ग्रुप की इनइक्विलिटी सम्मिट में यह प्रस्ताव रखा गया था। हमारे देश में मोदी सरकार ने उल्टा बड़े पूंजीपतियों पर टैक्स कम कर दिया है। साथ ही अडानी अंबानी जैसे चंद पूंजीपतियों को सरकार का संरक्षण मिल रहा है। जिससे इनकी सम्पत्ति दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती जा रही है। भारत इस सच से हमेशा आंखें चुराता है लेकिन अब वित्तमंत्री और आरबीआई के गवर्नर इस गंभीर मुद्दे पर चर्चा करने केे लिये मजबूर हो गये हैं।    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     दुनिया की पूरी इकाॅनोमी लगभग 100 ट्रिलियन डालर है। इनमें सबसे अधिक अर्थव्यवस्था अमेरिका की 30 ट्रिलियन तो चीन की 20 ट्रिलियन डालर है। भारत की इकाॅनोमी मात्र 3.6 ट्रिलियन डालर है। जो कि विश्व में पांचवे स्थान पर आती है। आंकड़ों से समझा जा सकता है कि पूरी दुनिया की कुल दौलत में से आधी अकेले अमेरिका और चीन के पास है। जी 20 की बैठक में शामिल होने वाले दुनिया के तमाम देशों के वित्तमंत्री और सेंटरल बैंकों के गवर्नर के नाम हैं। हमारे देश में न केवल पूंजीवाद चल रहा है बल्कि खुलकर आवारा पूंजी अपना खेल खेल रही है। हालत अब यह है कि पहले पूंजीपति राजनीतिक दलों को चंदा देकर कुछ काम निकाल लिया करते थे। लेकिन अब वे बाकायदा सत्ताधरी दल को इतना बड़ा चंदा देेे रहे हैं कि सरकार उनके हिसाब से न केवल बन रही गिर रही है बल्कि नीतियां भी उनकी सुविधा संरक्षण और लाभ को केंद्र में रखकर बन रही है। मोदी भाजपा और संघ को इस बात से कोई समस्या नहीं है। मोदी तो एक बार आवेश में यहां तक कह चुके हैं कि क्या अमीरों को गरीब कर दे सरकार? दरअसल मोदी का आर्थिक माॅडल शुरू से ही अडानी जैसे पंूजीपतियों को खुला संरक्षण देकर उनसे पार्टी के लिये बेतहाशा चुनावी चंदा लेकर सत्ता में आना और संघ का एजेंडा आगे बढ़ाना रहा है। उनको बढ़ती आर्थिक असमानता से कोई सरोकार नहीं है। उनको घटते रोज़गार से भी कोई प्राॅब्लम नहीं है। 
विडंबना यह है कि मोदी इस मामले में अकेले नहीं हैं बल्कि पूरी दुनिया खासतौर पर अमेरिका ब्रिटेन यूरूप जी 20 के अधिकांश देश पूंजीपतियों के साथ ही खड़े हैं। आॅक्सफेम की आर्थिक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में आर्थिक असमानता अश्लीलता की सभी सीमायें पार कर गयी है। सर्वे के अनुसार पिछले दस साल में विश्व के एक प्रतिशत अमीरों ने कुल 42 प्रतिशत दौलत जोड़ी है। दुनिया के 50 प्रतिशत बाॅटम के लोगों के पास जितनी दौलत है उससे 34 गुना अधिक सम्पत्ति इन चंद धनपतियों के पास है। लोकसभा चुनाव के दौरान जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यही बात बोली थी तो भाजपा ने उनको ऐसे घेरा जैसे वे कोई देश विरोधी बात कह रहे हैं? पीएम मोदी ने तो राहुल गांधी के इस बयान को साम्प्रदायिक रंग देकर यहां तक कह दिया था कि वे हिंदूआंे की सम्पत्ति छीनकर मुसलमानों को बांटना चाहते हैं। सच यह है कि हिंदुत्व की आड़ में संघ परिवार भाजपा और मोदी चंद पूंजीपतियों के हित में अधिक काम कर रहे हैं। लेकिन सत्ता की पाॅवर अपने पुलिस प्रशासन और गोदी मीडिया के बल पर वे दुष्प्रचार के सहारे जनता को ऐसा महसूस कराते हैं जैसे उनसे बड़ा हिंदू समर्थक कोई दूसरा नहीं है। वे सभी गैर भाजपा दलों विपक्षी नेताओं सेकुलर हिंदुओें को हिंदू विरोधी देश विरोधी और करप्ट बताते हैं लेकिन इन दलों के साथ चुनावी गठबंधन करने में उनको तनिक भी संकोंच नहीं होता। 
साथ ही जिन विरोधी नेताओं को वे बेईमान हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी तक बताते रहते हैं उनके भाजपा में आने पर बेशर्म से चुप्पी साध लेते हैं। उनके खिलाफ पहले से दर्ज करप्शन के केस बंद कर क्लीन चिट दे दी जाती है। जी 20 में आर्थिक असमानता का मुद्दा चर्चा का विषय बन जाने पर मोदी सरकार मजबूरी में इस पर अपना पक्ष रख रही है। लेकिन इससे पहले उनकी सरकार आॅक्सफेम की रिपोर्ट को झुठला चुकी है। अब खुद सरकार के आर्थिक सर्वे में भी जब यही बात बार बार उभरकर सामने आ रही है कि आर्थिक असमानता वास्तव में है। यह बढ़ती भी जा रही है। ऐसे में मोदी सरकार के लिये इस मुद्दे से आंखे चुराना अधिक दिन संभव नहीं होगा। जी 20 में यह चर्चा हो रही थी कि दुनिया के कुल 3000 अरबपतियों पर 2 प्रतिशत सुपर रिच टैक्स लगाकर 200 से 250 बिलियन डालर जुटाये जा सकते हैं। मोदी सरकार के तमाम दावों वादों और आश्वासनों के बावजूद देश में बढ़ती बेरोज़गारी महंगाई और गरीबी से जनसंख्या के बड़े हिस्से का जीवन यापन करने को ज़रूरी आय अनाज कपड़ा मकान शिक्षा और स्वास्थ्य का खर्च असहनीय होता जा रहा है। 
हालत यह है कि देश के मीडियम क्लास का साइज़ कम होने लगा है। बड़ी बीमारी नौकरी छूटने या अचानक बड़ा नुकसान होने से तीन करोड़ लोग हर साल मीडियम क्लास से निधर््ान वर्ग में आ जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि केवल जीडीपी बजट और इकाॅनोमी का साइज़ बढ़ने से नहीं बल्कि संसाधनों अर्जित धन और सम्पत्ति के न्यायपूर्ण बंटवारे से ही समग्र समाज का भला हो सकता है। नेशनल संैपल सर्वे आॅफिस एनएसएसओ उपभोग के आंकड़ों के आधार पर आय का विवरण तय करता है लेकिन नई स्टडी इसको ठीक पैमाना नहीं मानती। आर्थिक जानकारों का कहना है कि लोगोें की आय का बड़ा हिस्सा ऐसी मदों में चला जाता है जिसका कंज़प्शन से सीधा सरोकार नहीं होता है। इस मामले में नेशनल काउंसिल आॅफ एप्लाइड इकाॅनोमिक रिसर्च और प्युपिल रिसर्च आॅफ इंडियाज़ कंज्यूमर इकाॅनोमी हाउस होल्ड इनकम के आंकड़े बेहतर पैमाना अपनाने से अधिक कारगर और विश्वसनीय हैं। इससे भारत जैसे विभिन्न क्षेत्रोें आर्थिक स्तरों और सामाजिक वर्गों का आय का स्तर ठीक से समझने में आसानी हो जाती है। विश्व असमानता के आंकड़े भी नेशनल एकाउंट टैक्स रिकाॅर्ड और पंूजीगत आय पर निर्भर होते हैं। इससे पहले कि दुनिया में दस्तक दे रही मंदी बड़ी विकराल समस्या का रूप धारण कर ले भारत जी 20 के देश नाटो देश यूरूपीय यूनियन से जुड़े देश अमेरिका ब्रिटेन चीन रूस फ्रांस अरब देशों को चाहिये कि वे आर्थिक असमानता को रोकने सबको रोज़गार देने और अमीरों पर सुपर रिच टैक्स लगाकर गरीबों को उनके खातों में सीध्ेा मदद भेजने की व्यवस्था सुनिश्चित करें नहीं तो पंूजीवाद भी समाजवाद की तरह धरती से उखड़ना शुरू हो जायेगा।
0 हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये,*
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।*
नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Saturday, 30 November 2024

बढ़ती बेरोजगारी

सरकारी आंकड़ों की जादूगरी जारी, 
फिर भी बढ़ती जा रही है बेरोज़गारी?
0 मोदी सरकार जब से सत्ता में आई है तब से वादों दावों और नारों के साथ फर्जी आंकड़ों की जादूगरी से जनता को ऐसा अहसास कराया जा रहा है। मानो सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा हो। इसके बावजूद देश में महंगाई बेरोज़गारी और गरीबी बढ़ती ही जा रही है। सच यह है कि काॅरपोरेट सैक्टर ने हर साल 1,45,000 करोड़ का टैक्स बचाकर भी नया निवेश नहीं किया है। जिससे रोज़गार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं। 2013 से 2022 तक उत्पादन क्षेत्र में मात्र 32 लाख रोज़गार पैदा हुए हैं। 18 प्रतिशत लोग घरेलू तौर पर अवैतनिक काम में लगे हैं। बड़े वाहनों की बिक्री घट रही है। मीडियम क्लास की तादाद भी कम होने लगी है। लेकिन सरकार धर्म की राजनीति कर चुनाव जीतने में लगी है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
आर्थिक सर्वेक्षण बता रहा है कि सरकार रोज़गार के अवसर बढ़ाने में लगातार नाकाम हो रही है। दस साल से स्किल इंडिया चलने का दावा किया जा रहा है लेकिन 51.25 प्रतिशत युवाओं में नौकरी पाने लायक ज़रूरी योग्यता व क्षमता ही नहीं है। सरकार इसका ठीकरा राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र पर फोड़कर अपना पल्ला झाड़ रही है। इसका दुष्परिणाम यह है कि एआई कौशल क्षेत्र में उल्टा नौकरी कम हो रही हैं। 11 करोड़ रोज़गार कृषि और 06.5 करोड़ एमएसएमई यानी कुल 94 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र से जुड़े हैं। वित्तमंत्री विपक्ष के बेरोज़गारी के आंकड़ों को विश्वसनीय नहीं मानती लेकिन सवाल यह है कि खुद सरकार के पास भी कोई अधिकृत आंकड़ा क्यों नहीं है। 2017 में सरकार को अरविंद पनगढ़िया ने रोज़गार के आंकड़े दिये थे। जिनको सरकार ने सार्वजनिक न कर ठंडे बस्ते में डाल दिया था। हर दस साल में जनगणना के दौरान ही नियमित रोज़गार और हर पांच साल मेें अनिगमित क्षेत्र के रोज़गार की गणना कराई जाती रही है। लेकिन 2021 में यह कोरोना की वजह से नहीं होने से यह आंकड़ा भी सामने नहीं आ सका है। एक जानकारी के अनुसार 2020 से 2023 तक काॅरपोरेट का लाभ टैक्स छूट से बढ़कर चार गुना तक पहुंच गया है। लेकिन काॅरपोरेट ने न तो नई नौकरियां दीं और न ही पुराने कर्मचारियों का वेतन अपने बढे़ लाभ के अनुपात में बढ़ाया। अरविंद सुब्रमण्यम का कहना है कि इस सरकार में दो खास काॅरपोरेट घरानों को सरकार का खुला संरक्षण मिलने से अन्य उद्योग स्वामी निवेश करने से बचने लगे हैं। 
सरकारी नीतियां इन दो उद्योग समूह के हिसाब से ही बन रही हैं जिससे मीडिया से लेकर पोर्ट एयरपोर्ट टेलिकाॅम और सीमेंट जैसे कई बड़े क्षेत्रों पर इन दोनों का एकतरफा कब्ज़ा हो गया है। हालत यह है कि 2014 से 2023 तक काॅरपोरेट कर घटकर 26 प्रतिशत होने से व्यक्तिगत कर बढ़कर 35 प्रतिशत आ रहा है। काॅरपोरेट एक तो नई नौकरी नहीं दे रहा अगर देता भी है तो संविदा पर सेवा कराने का चलन बढ़ता जा रहा है। आॅनलाइन कारोबार बढ़ते जाने से असंगठित क्षेत्र की 16 लाख नौकरी हाल में चली गयी हैं। जानकार बताते हैं कि देश में हर साल 79 से 81 लाख नये रोज़गार की ज़रूरत होती है। विडंबना यह है कि जिस देश में 80 करोड़ से अधिक लोग सरकारी निशुल्क राशन पर जीवन गुज़ारने पर मजबूर हांे वहां उपभोक्ता बाज़ार कैसे बढ़ेगा? यह भी अर्थशास्त्र का सिध्दांत है कि जब तक खपत नहीं बढ़ेगी नया निवेश कर नया उत्पादन कौन कंपनी और क्यों बढ़ायेगी? यानी नया रोज़गार और नौकरी बढ़ने की संभावना कैसे पैदा होगी? एनसीआरबी का आंकड़ा बता रहा है कि बेरोज़गारी की वजह से 2018 में हर दो घंटे में तीन बेरोज़गार जान देते थे अब यह आंकड़ा बढ़कर एक घंटे में दो बेरोज़गारों की आत्महत्या पर पहंुच गया है। 
   सरकार का झूठ इससे भी पता चलता है कि 2016-17 में काम करने वाली कुल आबादी देश में जहां 42.79 प्रतिशत यानी 40 से 41 करोड़ थी वह 2023-24 में बढ़कर मात्र 41 से 42 करोड़ बताई जा रही है। जबकि वास्तविक काम करने वाली जनसंख्या 55 से 60 प्रतिशत होती है। सरकार ने पिछले दिनों आरबीआई के एक सर्वे का हवाला देते हुए दावा किया था कि पिछले 3 से 4 साल में 8 करोड़ रोज़गार पैदा हुए हैं। सच यह है कि रिज़र्व बैंक ऐसा कोई सर्वे नहीं करता है। यह सरकार को खुश करने और जनता को गुमराह करनेे के लिये पीएलएफएस के आंकड़ों को ही तोड़ मरोड़कर मन माफिक परिणाम निकाल कर परोसने की राजनीतिक कला है। इन आंकड़ों में एक खेल यह किया जाता है कि जो अनपेड लेबर है उसको भी स्वरोज़गार में जोड़कर आंकड़ा काफी बढ़ा चढ़ाकर दिखाया जाता है। मिसाल के तौर पर जो लोग अपने परिवार के मुखिया की खेती या दुकान या ठेले पर काम में बिना किसी वेतन के हाथ बंटा देते हैं उनके श्रम की गणना नये रोज़गार के तौर पर कर ली जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि इससे किसी को नया रोज़गार तो मिला ही नहीं होता। यह कोई देखने को तैयार नहीं है कि भारत की 45 प्रतिशत से अधिक आबादी खेती करती है जबकि जीडीपी में उसकी भागीदारी मात्र 15 प्रतिशत है तो इससे यह असमानता और विषमता कैसे दूर होगी? इससे इस बड़े क्षेत्र की उत्पादकता भी कम रह जाती है। 
सरकार इपीएफ में दर्ज होने वाले नामों को भी नया रोज़गार मानकर आंकड़ों में हेरफेर करती रहती है। जबकि सबको पता है कि जो लोग पहले से संविदा या अनियमित सेवा दे रहे हैं। उनके रोज़गार नियमित होने पर उनका नाम कर्मचारी भविष्यनिधि संगठन में दर्ज करना अनिवार्य होता है। मनरेगा के 50 से 100 दिन के काम को भी कुछ संगठन नये रोज़गार पाने वालों में जोड़कर रोज़गार पाने वालों का फर्जीवाड़ा करते हैं। कोरोना लाॅकडाउन में जब तमाम लोगों के रोज़गार बड़े पैमाने पर चले गये तो उनका आंकड़ा तो बेरोज़गारों में जोड़ा नहीं गया लेकिन जिन लोगों ने मनरेगा छोटी दुकान या ठेला लगाया उनको नये रोज़गार में शामिल कर रोज़गार बढ़ने का ढोल पीट दिया गया।
0 तसल्ली देने वाले तो तसल्ली देते रहते हैं,
 मगर वो क्या करे जिसका भरोसा टूट जाता है।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।