Thursday, 18 September 2025

केंचुआ का दुस्साहस

*केंचुआ क्यों कर रहा है मनमानी,* 
*सुप्रीम कोर्ट की भी नाफ़रमानी?*
0 केंद्रीय चुनाव आयोग यानी केंचुआ सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को बार बार अनदेखा कर दावा कर रहा है कि सुप्रीम कोर्ट उसको पूरे देश मंे एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण करने से नहीं रोक सकता? केंचुआ ने यह चुनौती सबसे बड़ी अदालत को अपने लिखित शपथ पत्र में दी है। यह हैरत और चिंता की बात है कि जो सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति गवर्नर और संसद तक को समय समय पर संविधान के खिलाफ काम करने पर चेतावनी पुनर्विचार या उनके बनाये नियम कानूनों तक को निरस्त कर चुका है, उस सर्वोच्च न्यायालय को चुनाव आयोग किसके बल बूते पर चुनौती देने का दुस्साहस कर रहा है? अगर 2014 से पहले का दौर होता तो अब तक सुप्रीम कोर्ट मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से हटाकर जेल भेज चुका होता...।     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     केेंचुआ यानी केंद्रीय चुनाव आयोग ने कहा है कि पूरे देश में होने वाले मतदाता सूचियों के एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण में अब अधिकतर राज्यों में आधे से अधिक मतदाताओं को कोई भी दस्तावेज़ देने की आवश्यकता नहीं होगी। आयोग का दावा है कि 1978 से पहले पैदा हुए लोगों को कोई कागज़ नहीं देने की छूट दी गयी है। इसके साथ ही केंचुआ ने अपनी बात काटते हुए इसी प्रेस रिलीज़ में यह भी कहा है कि ऐसे लोगों को केवल एक हलफनामा देना होगा जिसके साथ एक ऐसा दस्तावेज़ देना ज़रूरी होगा जिससे उनके जन्मतिथि और जन्मस्थान की प्रमाणिकता की पुष्टि होती हो। ऐसा लगता है कि केंचुआ अपने दिमाग से काम न करते हुए किसी के मौखिक आदेश पर काम कर रहा है? उसको यह मामूली सी बात भी समझ में नहीं आ रही कि जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण पत्र भी दस्तावेज़ ही होता है। जब शपथ पत्र के साथ 1978 से पहले पैदा हुए मतदाताओं को यह दस्तावेज़ देना ज़रूरी है तो यह झूठ क्यों बोला जा रहा है कि ऐसे लोगों को कोई दस्तावेज़ नहीं देना है। सवाल यह भी उठता है कि जब आप किसी से अपने जन्म की तिथि और जन्म के स्थान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं तो एक तरह से नागरिकता का ही प्रमाण मांग रहे हैं। 
     जबकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि नागरिकता तय करने का काम केंचुआ नहीं गृह मंत्रालय का है। दूसरी बात जो लोग आज से 47 साल पहले यानी 50, 60, 70 या 80 साल पहले पैदा हुए थे वे अपना जन्म का प्रमाण पत्र कहां से लायेंगे? उन दिनों कौन बनवाता था जन्म का प्रमाण पत्र? और अगर किसी ने बनवाया भी होगा तो वह अधिक से अधिक जन्म तिथि का प्रमाण पत्र या हाईस्कूल की मार्कशीट हो सकती है। वो भी 5 से 10 प्रतिशत लोगों के पास ही मिलेगी। सरकारी नौकरी न मिलने या सब काम आजकल आधार से होने की वजह से अधिकांश लोगों ने वह जन्म का प्रमाण भी शायद ही संभाल कर रखा हो। आधार पर याद आया जब सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में एसआईआर शुरू करने के दौरान केंचुआ से कहा कि वह आधार को भी उन 11 दस्तावेज़ों में शामिल करे जो वह राज्य में मतदाताओं से उनके नाम मतदाता सूची में शामिल करने के लिये अनिवार्य तौर पर मांग रहा है। केंचुआ ने सबसे बड़ी अदालत के बार बार निर्देश देने के बावजूद आधार को तब तक उस सूची में शामिल नहीं किया जब तक कि याचिका कर्ताओं ने केंचुआ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से उसकी अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की शिकायत दर्ज नहीं करा दी। यह बात भी रहस्य बनी हुयी है कि सुप्रीम कोर्ट क्यों केंचुआ को इतनी मनमानी और नाफरमानी की खुलेआम छूट दे रहा है? 
      जिससे उसका दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि वह सबसे बड़ी अदालत को बाकायदा लिखित में यह चुनौती शपथ पत्र दााखिल करके दे रहा है कि उसके एसआईआर के काम में सुप्रीम कोर्ट दखल नहीं दे सकता? यानी केंचुआ कुछ भी गैर कानूनी नियम के खिलाफ और संविधान को ताक पर रखकर मनमानी करने को आज़ाद है? वह भूल गया है कि केंचुआ जनता का नौकर है। नौकर अगर जनता के खिलाफ काम करेगा तो उसको जनता कोर्ट में चुनौती देगी और सुधार नहीं करेगा तो नौकरी से भी निकाला जा सकता है। अगर केंचुआ के पीछे मोदी सरकार नहीं खड़ी है तो उसकी इतनी हिम्मत और हिमाकत कैसे हो गयी कि वह चोरी और सीना ज़ोरी कर रहा है? जब संसद से बने कानून को सुप्रीम कोर्ट निरस्त या संशोधित कर स्टे कर सकता है तो केंचुआ की सुप्रीम कोर्ट के सामने औकात ही क्या है? 
      समाजसेवी और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव का दावा है कि बिहार में केंचुआ की कारस्तानी की पोल खुल चुकी है। वहां उसने 65 लाख लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया। जब 16 लाख लोगों ने अपना नाम शामिल करने और 4 लाख लोगों ने आपत्ति दर्ज की तो पता चला कि 40 प्रतिशत से अधिक वो लोग हैं जिनकी आयु 25 से 100 साल के बीच है। यानी ये लोग पहली बार वोटर बनने के लिये नहीं अपना फर्जी तरीके से कट गया नाम जुड़वाने के लिये आवेदन कर रहे हैं। इनको केंचुआ कह रहा है कि अपना पुराना इपिक भूल जाओ और नये सिरे से मतदाता बनने के लिये ज़रूरी कागजात जमा करो। केंचुआ के दावा है कि आॅब्जक्शन करने वाले 4 लाख लोगों में से 58 प्रतिशत कह रहे हैं कि उनका नाम लिस्ट से काट दीजिये क्योंकि वे मर चुके हैं, विदेशी हैं या कहीं राज्य से बाहर रहने लगे हैं। अब सोचिये क्या कोई मृतक या विदेशी ऐसा कह सकता है? यह सब फर्जीवाड़ा खुद चुनाव आयोग अपने बीएलओ के द्वारा करा रहा है जिससे चुनाव आयोग ने हमारे चुनाव वोटर लिस्ट और लोकतंत्र को तमाशा बना कर रख दिया है। एक शायर ने कहा है-
 *लश्कर भी तुम्हारा है सरदार भी तुम्हारा है,* 
 *तुम झूठ को सच लिख दो अख़बार भी तुम्हारा है।* 
 *इस दौर के फ़रियादी जाएं भी तो कहां जायें,* 
 *सरकार भी तुम्हारी है दरबार भी तुम्हारा है।।* 
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 11 September 2025

नेपाल और सोशल मीडिया

*सोशल मीडिया बैन से जला नेपाल,*
 *या इसके पीछे है विदेशी चाल?* 
0 ‘हामी नेेपाल’ यानी हामरे अधिकार मंच इनिशिटिव पेशेवर इवेंट मैनेजर सुदन गुरूंग ने 2015 में बनाया था। इसका मुख्य काम आपदा के समय लोगों की मदद करना और जनता में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करना बताया जाता है। इस संगठन का संबंध विदेशी दूतावासों से रहा है। इसको विदेशी पैसा भी मिलता रहा है। हामी नेपाल के आव्हान पर ही पिछले दिनों नेपाल में ज़बरदस्त हिंसा व आगज़नी हुयी है। कहने को 26 सोशल मीडिया एप पर लगायी गयी रोक इस हंगामे का तत्काल कारण मानी जा रही है लेकिन इससे केवल चिंगारी भड़की है, वहां विरोध आक्रोष और तनाव का बारूद पहले ही मौजूद था। जेन जे़ड यानी 1997 से 2012 के बीच पैदा हुयी पीढ़ी के आंदोलन के पीछे कहीं अमेरिका तो नहीं?     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    काठमांडू के 17 साल के छात्र विलोचन पौडेल का कहना है कि ‘‘तीन बड़ी पार्टियांे को बार बार मौका मिलता है, वे कुछ नहीं करती। न अच्छा शासन लाती हैं न विकास। वे दूसरों को भी काम नहीं करने देतीं। हालात ऐसे हो गये हैं कि आम लोगों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवायें तक नहीं मिल पा रहीं। हमें इस कुप्रशासन के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी...तभी देश आगे बढ़ेगा।’’ 23 साल की लाॅ ग्रेज्युएट सादिक्षा का कहना है कि ‘‘यह सिर्फ फेसबुक या टिकटाॅक पर रोक की बात नहीं है। यह उन नेताओं की बात है जो हमारे टैक्स लूटते हैं। जो अमीर बनते जाते हैं जबकि युवाओं के पास नौकरियां नहीं हैं। अब बस बहुत हो गया।’’ इसमें कोई दो राय नहीं नेपाल में जनता में असंतोष है। वहां 12 प्रतिशत से अधिक बेरोज़गारी है। गरीबी है। भुखमरी है। हर साल चार लाख युवा देश छोड़कर काम की तलाश में भारत सहित विदेश जाने को मजबूर हैं। राजनीतिक अस्थायित्व भी है। कोई सरकार कोई पीएम पूरे पांच साल नहीं टिक पाता है। शासन प्रशासन में जमकर भ्रष्टाचार भी चल रहा है। नेताओं के बच्चे आराम की ज़िंदगी जी रहे हैं। विदेशों में पढ़ रहे हैं। मौज मस्ती कर रहे हैं। बड़े बड़े नेता बड़े बड़े सरकारी बंगलों में ऐश कर रहे हैं। खूब कमीशन खा रहे हैं। ऐसा तो और भी कई देशों में हो रहा है लेकिन वहां तो ऐसा खूनखराबा नहीं हो रहा है। 
    दरअसल जो दिख रहा है वह इतना सामान्य नहीं है। नेपाल में जैसे अचानक सरकार की सोशल मीडिया पर खिंचाई शुरू हुयी। सरकार ने सोशल मीडिया के 26 एप पर रोक लगा दी। बहाना भले ही उनके रजिस्ट्रेशन न कराने का लिया गया हो। यह सब इतना स्वतः स्फूर्त नहीं है कि दस बीस हज़ार की भीड़ सड़कों पर निकली और उसने संसद सुप्रीम कोर्ट और पक्ष विपक्ष के नेताओं के घरों में आग लगा दी। सेना और पुलिस बजाये शासकों की रक्षा करने के पीएम से कहती है कि आप पद से इस्तीफा देकर देश छोड़कर निकल भागिये। पद छोड़ते ही सेना उसको अपने हेलिकाॅप्टर से सुरक्षित स्थान पर पहंुचा देती है। कुछ लोग इसको बगावत और क्रांति का नाम दे रहे हैं लेकिन यह स्वाभाविक तख्तापलट नहीं है। दक्षिण एशिया में यह एक पेटर्न है। इससे पहले श्रीलंका बंगलादेश पाकिस्तान अफगानिस्तान के साथ ही यूक्रेन म्यांमार टयूनीशिया मिस्र सूडान माली नाइज़र जाॅर्जिया किर्गिस्तान बोलिविया और थाईलैंड में ठीक इसी तरह से सत्ता औंधे मुंह गिराई जा चुकी हैं। इनमें से कुछ सरकारें चीन के बहुत करीब जा रही थीं। यह बात अमेरिका को पसंद नहीं थी। इसके बाद जो नई कठपुतली सरकारें बनीं उनको अमेरिका ने खुलकर आर्थिक पैकेज भी दिये। मिसाल के तौर पर श्रीलंका में तख्तापलट के बाद अमेरिका ने 5.75 मिलियन डाॅलर की मानवीय सहायता दी थी। 
       बंगलादेश में तख्तापलट के समय अमेरिका ने सेना के तटस्थ हो जाने और वहां की पीएम शेख हसीना को देश छोड़कर भागने को मजबूर करने लिये सेना की सराहना की और अंतरिम सरकार बनाने से लेकर चलाने तक समर्थन व सहयोग का वादा किया। अमेरिका ने 2011 में टयूनीशिया मेें 2013 में मिस्र में 2014 में यूक्रेन में 2019 में सूडान में 2003 में जाॅर्जिया में 2010 में किर्गिस्तान में और 2019 में बोलीविया में भी यही खेल किया था। अब नेपाल में भी यही कहानी दोहराने की कवायद चल रही है। जिन देशों में तख्तापलट हुआ वे रूस या चीन के निकट जाते दिख रहे थे। दरअसल इतने बड़े आंदोलन तोड़फोड़ आगज़नी और बड़े नेताओं के घरों पर हमले अचानक नहीं होते। इनके लिये बहुत पहले से विस्तृत जानकारी सुनियोजित रोडमैप बड़ी मात्रा में धन और विशाल संसाध्न जुटाने होते हैं जो कि युवाओं का कोई समूह रातो रात नहीं कर सकता है। इसके पीछे विपक्ष विदेशी शक्तियां और ठेके पर काम करने वाले एनजीओ होते हैं। जो इन सारी व्यवस्थाओं को काफी समय पहले संभालते हैं। इसके बाद नेपाल की तरह सोशल मीडिया एप पर पाबंदी की आड़ में पहले से पैदा हो रहे विरोध नाराज़गी और क्रोध के विस्फोटक में चिंगारी लगाने का बहाना तलाशा जाता है। 
       नेपाल की केपी शर्मा ओली सरकार अमेरिका को खफा करके लगातार चीन से नज़दीकी बढ़ा रही थी। अमेरिकी मीडिया काफी समय से ओली सरकार के खिलाफ फेक न्यूज़ और अफवाहंे फैला रहा था। इन पर रोक लगाने को जैसे ही ओली सरकार ने सोशल मीडिया को सेंसर करने के लिये कदम उठाये विदेशी शक्तियों को विद्रोह कराने का अवसर मिल गया। दअसल व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे दर्जनों सोशल मीडिया एप इस साज़िश में अमेरिका का साथ दे रहे थे। वे नेपाल सरकार की एक नहीं सुन रहे थे। यही वह जाल था जिसमें ओली सरकार फंस गयी। जब इन 26 एप ने बार बार दबाव डालने पर भी हेकड़ी दिखाते हुए अपना रजिस्टेªशन नहीं कराया तो ओली सरकार ने तत्काल दबाव बनाने को इन पर रोक लगा दी। यहीं से युवाओं को भड़काने की चाल सफल हो गयी। इसके लिये सरकार और विपक्षी नेताओं के भ्रष्टाचार को भी आधार बनाया गया जो पहले से दुखी बेरोज़गार और पलायन के लिये मजबूर नेपाली युवा के दिमाग में आसानी से बैठ गया। इसके बाद जब ये एप खोल भी दिये गये तो भी आंदोलन न रूकने का मतलब समझा जा सकता है। इस मामले में भारत को भी संयम बरतकर चीन से नज़दीकी बढ़ाने की एक सीमा तय करनी चाहिये क्योंकि हम अमेरिकी विरोध भी एक सीमा तक ही सहन कर सकते हैं। साथ ही हमें अपनी संवैधानिक संस्थाओं को आज़ादी देते हुए निष्पक्ष ईमानदार व मज़बूत बनाने के साथ आम आदमी युवाओं और कमज़ोर वर्गों की पहले से अधिक चिंता करनी चाहिये।   
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Wednesday, 3 September 2025

निक्की भाटी की दहेज़ हत्या

*निक्की भाटी की हत्या लक्षण है,*
*असली रोग समाज का लोभ है!*
0 21 अगस्त को ग्रेटर नोयडा में 26 साल की निक्की भाटी की दहेज़ के लिये निर्मम हत्या कर दी गयी। इसके साथ ही यह बहस एक बार शुरू हो गयी कि दहेज़ हत्या के लिये क्या पति सास ससुर और उसकी ननद ही ज़िम्मेदार होते हैं? या उसके माता पिता रिश्तेदार और पुरूषप्रधान समाज का लड़की को वस्तु समझना बोझ समझना और किसी तरह से उसकी शादी करके सदा के लिये उससे मुक्ति पाने की सोच भी इस तरह के अपराध के लिये उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं? निक्की का मर्डर केवल दहेज़ के लिये नहीं बल्कि उसका अपने पैरों पर खड़े होने को फिर से ब्यूटी पाॅर्लर खोलने की ज़िद, लगातार टाॅर्चर किये जाने के बावजूद उसके परिवार वालों का उसको पुलिस के पास न भेजकर समझा बुझाकर वापस उसकी ससुराल भेजना और लड़की को डोली में विदा कर उस घर से अर्थी या जनाजे़ में ही निकलने की दकियानूसी सीख भी वजह बनी है?     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के अनुसार 2022 में कुल 6450 महिलायें दहेज़ के लिये यातनायें देेकर मारी जा चुकी हैं। दहेज़ हत्या के 60,577 मामलों में केवल 1231 में दोषियों को सज़ा मिली हैं। हमें लगता है कि देश में जिस तरह से लोकलाज गरीबी और विभिन्न सामाजिक भेदभाव के चलते अधिकांश अपराध के मामले दर्ज ही नहीं हो पाते उस हिसाब से दहेज़ हत्या के वास्तविक आंकड़े कई गुना अधिक हो सकते हैं। यह हमारे पूंजीवाद समाज के लिये शर्म की बात है कि आज खुलेआम अधिकांश लोग शादी के लिये रिश्ते की बात तय करते हुए साफ़ साफ़ पूछ लेते हैं कि लड़के वालों की क्या मांग है? उसके बाद लड़की वाला अपना बजट बताता है। फिर दोनों पक्षों में जब किसी खास रकम पर बात तय हो जाती है तो यह भी खोल दिया जाता है कि कितना पैसा किस तरह से लड़की पक्ष की ओर से खर्च किया जायेगा। इसके बाद कई बार यह भी होता है कि लड़के वाला और अधिक की मांग रखता जाता है जबकि लड़की वाला यह कहकर शादी की तैयारी शुरू कर देता है कि चलो देखा जायेगा...। हो जायेगा, देख लेंगे, सोच लेंगे, कोशिश करेंगे आदि आदि। इसके साथ ही कभी कभी यह भी होता है कि तयशुदा रकम या सामान मिलने के बावजूद लड़के वाले की लालच की भूख खत्म नहीं होती और घटिया नीच व अत्यधिक लोभी परिवार होने की वजह से वे एक के बाद एक नई मांग रखते जाते हैं।
    जिससे एक न एक दिन लड़की वाले का बजट और सहनशीलता की सीमा टूट जाती है। इसके बाद टकराव तनाव और लड़की का दहेज़ के लिये उत्पीड़न मानसिक से बढ़कर शारिरिक और पुलिस की थर्ड डिग्री के तौर तरीकों तक पहुंच जाता है। ऐसे में लड़की या तो अपने माता पिता की मजबूरी समझकर चुपचाप सहन करती रहती है या फिर उनको बता भी देती है तो वे असहाय परेशान और तलाक दिलाकर फिर से लाखो रूपये खर्च करने की हैसियत न होने या पैसा हो भी तो सामाजिक पारिवारिक व आर्थिक कारणों से इस जानलेवा समस्या को अनदेखा करते रहते हैं। यह हमारे पुरूषप्रधान समाज की ही निष्ठुरता निर्दयता और बेईमानी है कि लड़की का तलाक होने पर उसकी दूसरी शादी होनी मुश्किल हो जाती है जबकि लड़की को दहेज़ के लिये सताकर मारने वाले लड़के की फिर से शादी बिना किसी बड़े नुकसान सामाजिक प्रतिष्ठा और लोकलाज को दरकिनार हो जाती है। यह हमारे समाज का दोगलापन बड़बोलापन और नैतिक रूप से खोखलापन ही कहा जा सकता है। निक्की के पिता ने शादी में लगभग 30 लाख खर्च किये थे जो कि छोटी रकम नहीं होती। साथ ही स्काॅर्पियो कार बुलेट मोटर साइकिल और भरपूर जे़वर व दूसरे घरेलू इस्तेमाल के महंगे सामान के साथ ही भव्य दावत भी दी थी। लेकिन कहते हैं कि लालची आदमी को आप सारा ज़मीन आसमान भी दे देंगे तो भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता है। कुछ लोग आज भी शादी में अपनी बेटी को विदा नहीं करते बल्कि गर्व से इसे कन्यादान कहते हैं।
     क्या लड़की कोई सामान है? वह कोई सम्पत्ति है? जो उसको दान किया जाता है? कुछ लोग लड़की के देवी होने का दावा भी करते हैं लेकिन उसको केवल और केवल इंसान नहीं मानते। उसको लड़के के बराबर नहीं मानते। उसकी शादी के लिये उतनी ही समान आवश्यकता नहीं स्वीकारते जितनी लड़के की होती है। अजीब और दुखद बात यह है कि यह बात लड़के वाला ही नहीं खुद लड़की का परिवार भी मानता है कि लड़की लड़के से छोटी कमतर कम पढ़ी लिखी कमज़ोर कम हैसियत वाली कम प्रभावशाली कम कमाने वाली कम सामाजिक कम सहेली दोस्त वाली कम मोबाइल चलाने वाली कम खुलकर हंसने वाली कम गैरों से बात करने वाली कम सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने वाली कम अपनी मर्जी चलाने वाली कम अपनी पसंद से कपड़े खाना और अपने या परिवार के बारे में फैसला करने की इच्छा रखने वाली ही अच्छी होती है। तथाकथित मान मर्यादा इज़्ज़त छवि बच्चो की चिंता परिवार बिखरने का डर और आन के लिये लड़की के साथ खुद उसका परिवार ही पक्षपात अन्याय और असमान व्यवहार कर हर हाल में वहीं जीने वहीं मरने यानी ‘‘एडजस्ट’’ करने को मजबूर करता है। यह जुल्म और ज़्यादती की इंतिहा ही कही जा सकती है कि समाज के लिये एक लड़की की जान बचाने से अधिक परिवार का सम्मान बचाने को उसका तलाक ना लेने देना अधिक उपयोगी माना जाता है।
      उसकी पसंद के लड़के से शादी करना तो दूर उससे रिश्ता तय करते हुए कई परिवारों में लड़के से मिलाना दिखाना और बात कराना तक वर्जित है। ऐसे ही लवमैरिज या लिवइन रिलेशन को समाज के साथ ही कई राज्य सरकारें अपराध जैसा बनाने का कानून ला चुकी हैं जबकि इससे लड़का लड़की की आपसी समझ पसंद और गुण दोष पहले ही सामने आ जाने से कई लड़कियां शादी के बाद दहेज़ उत्पीड़न मानसिक यातना और हत्या से बच जाती हैं। लानत है ऐसे समाज पर लानत है ऐसी व्यवस्था पर और लानत है ऐसी सोच पर जिसमें पंूजीवाद के चलते लोग अधिक से अधिक पैसा एक मासूम असहाय और कमज़ोर लड़की को दुल्हन बनाकर घर लाकर ब्लैकमेल करके न केवल वसूल लेते हैं बल्कि जब असफल हो जाते हैं तो उसकी जान तक भूखे भेड़ियों की तरह ले लेते हैं लेकिन हमारी सरकार पुलिस और अदालतेें समय पर सख़्त सज़ा देकर अपराधियों को सुधरने के लिये मजबूर तक कई कई साल नहीं कर पाते यानी ये सब न्याय के रास्ते बंद से हो चुके हैं। इसका मतलब यह है कि हमारे समाज के साथ ही पूरे सिस्टम को बदले बिना इस रोग से छुटकारा मिलना असंभव है। अंजुम रहबर ने एक दुल्हन के दर्द को शेर में क्या खूब बयान किया है-
 *उसकी पसंद और थी मेरी पसंद और,* 
 *इतनी ज़रा सी बात पर घर छोड़ना पड़ा।*   
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Wednesday, 27 August 2025

मोदी सरकार और भ्रष्टाचार

*सरकार पर लगे हैं आरोप लगातार,*
*लेकिन साबित कैसे होता भ्रष्टाचार?*
0 पीएम मोदी ने कहा है कि इतने वर्षों में हमारी सरकार पर भ्रष्टाचार का एक भी दाग नहीं लगा। यह बात किसी हद तक तो सही है क्योंकि जब मोदी सरकार पर करप्शन के आरोप लगे अगर वे उनकी निष्पक्ष जांच कराते तो सच सामने आता। हालांकि आज के दौर में निष्पक्ष तो सीबीआई या ईडी भी नहीं है जो केवल विपक्ष के नेताओं को चुनचुनकर भ्रष्टाचार के आरोप में निशाने पर लेती है। यही आरोपी विपक्षी नेता जब भाजपा में शामिल हो जाते हैं तो उनकी जांच ठंडे बस्ते में चली जाती है या फिर उनको क्लीन चिट दे दी जाती है। मोदी सरकार में भ्रष्टाचार को कई मामलों में या तो लीगलाइज़ कर दिया गया है या फिर ऐसे तौर तरीके निकाल लिये गये हैं जिनसे करने पर करप्शन करप्शन की परिभाषा से बाहर हो गया है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     इलेक्टोरल बांड की मिसाल ताज़ा है। यह करप्शन का जीता जागता नमूना था। इसको सुप्रीम कोर्ट ने अवैध मानकर निरस्त कर दिया था लेकिन इसके द्वारा जो लाखो करोड़ रूपया वसूला गया उसको राजनीतिक दलों से वापस नहीं कराया गया। आंकड़े बताते हैं कि इसका आधे से अधिक हिस्सा भाजपा के मिला था। विपक्ष का आरोप यह भी था कि जिन्होंने करोड़ों के इलेक्टोरल बांड खरीदकर भाजपा को दिये थे उनको चंदा लेकर ध्ंाधा दिया गया था। इतना ही नहीं मोटा चंदा इन बांड के द्वारा लेकर कई ठेके उन लोगों से निरंतर छापे रेड डालकर बीच में ही वापस ले लिये गये थे जो पहले से उनके पास चले आ रहे थे। इसके बाद ये ठेके नियम विरूध मोदी सरकार ने अपने चहेते उद्योगपतियों को दे दिये थे। ऐसे लोगों की एक लंबी सूची सार्वजनिक रूप से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चुनाव आयोग ने जारी की थी जिनमें 12000 करोड़ से अधिक रूपयों के इलेक्टोरल बांड देने वालों को सरकार ने नियम कानून ताक पर रखकर आॅब्लाइज किया था। विपक्ष के सरकार पर करप्शन के आरोप का दूसरा बड़ा उदाहरण पीएम केयर फंड है। इसमें सरकारी कंपनियों धनवान लोगों और सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों के वेतन सहित कंपनी सोशल रेस्पोंसिबिलिटी यानी सीएसआर का पैसा जमकर लिया गया लेकिन जब इसके बारे में सूचना के अधिकार में जानकारी मांगी गयी तो सरकार ने दावा किया कि यह तो निजी ट्रस्ट है इसपर आरटीआई कानून लागू नहीं होता।
     कमाल की बेशर्मी और मनमानी थी कि 30,000 करोड़ की विशाल धनराशि पीएम केयर, जो सरकारी पद है, के नाम पर आप जमा करते हैं और उसका हिसाब किताब मांगने पर उसको निजी बताकर छिपा लेते हैं। कोरोना महामारी के दौरान इस पीएम केयर से जो वंेटीलेटर खरीदे गये थे। उनकी गुणवत्ता और बहुत अधिक कीमत को लेकर भी सरकार पर करप्शन के आरोप लगे थे लेकिन उनकी आज तक कोई जांच नहीं हुयी। करप्शन का तीसरा चर्चित तरीका जो संस्थागत हो गया वह चुने हुए चंद कारपोरेट घरानों को बिना उनकी हैसियत काबिलियत और विशेषज्ञता जांचे सरकारी बैंकों से पहले भूरपूर कर्जा दे दो। उनको ही सरकारी सम्पत्ति औने पौने दाम पर बेच दो। उसके लिये भी उनका पिछला रिकाॅर्ड चैक किये बिना सरकारी बैंकों से लोन दिला दो। उनमें से कुछ बड़ी बड़ी रकम डकार कर विदेश भाग गये। कुछ ने अपना झूठा दिवाला निकालकर एनसीएलटी में अपना कुल कर्जा मात्र 5 से 10 प्रतिशत में लेदेकर सेटल करा लिया। उसके बाद ये ही उद्योगपति फिर से किसी नये प्रोजेक्ट में लग गये। लगता है इन चहेते धंधे वाले लोगों ने बांड के ज़रिये सत्ताधरी दल की सेवा कर दी। अडानी अंबानी और टाटा जैसे चंद पूंजीपतियों को काॅकस बनाकर सारा काम सारे ठेके और सारी योजनायें देते जाओ। उनसे कमीशन या रिश्वत लेने की ज़रूरत ही नहीं है।
        उनको जो करोड़ो अरबों का मुनाफा होगा उसमें से वे आपको चुनावी चंदा जितना आप चाहोगे वो देते रहेंगे। इसमें भ्रष्टाचार कहां हुआ जो पकड़ में आयेगा? एक दौर था जब भ्रष्टाचार होता था तो दिखता भी था। आरोप लगते थे तो ईमानदारी से जांच भी होती थी तो कई मामालों में साबित भी हो जाता था। उस ज़माने में नेता लोग ठेकेदारों अधिकारियों और उद्योगपतियों यहां तक कि छोटे छोटे व्यापारियों से भी चवन्नी अठन्नी से लेकर हज़ार पचास हज़ार लाख और करोड़ तक चंदा लेकर बदनाम होते थे क्योंकि जितना बड़ा चंदे का दायरा उतने मुंह उतनी ही पोल खुलने पर बातें आरोप चर्चा और शोर मचने का खतरा रहता था। अब करपशन को लीगलाइज़ और इंस्टीट्यूशनलाइज करने का मतलब ही यह है कि जो बेईमानी पहले किकबैक या एक्सटाॅर्शन कहलाती थी वह अब लीगली कंट्रीब्यूशन बना दी गयी। अब एक ही कारपोरेट से करोड़ों अरबों रूपया राजनीतिक चंदा चुपचाप ले लिया जाता है। यहां तक विधायक खरीदकर सराकरें भी गिरा दी जाती है। उसके बाद होने वाले चुनाव में वोटर लिस्ट में लाखों फर्जी वोटर जोड़कर उनको किसी एनजीओ के द्वारा जगह जगह मतदान को भेजने के लिये बड़ी रकम खर्च की जाती है। चुनाव लड़ने को एमपी के लिये 90 लाख और एमएलए के लिये 27 लाख की तय सीमा से कई गुना अधिक धन पार्टी मुख्यालयों से महानगर से लेकर गांवों तक पंचायत चुनाव में पार्टी का परचम लहराने को भेजा जा रहा है। 1200 करोड़ के बड़े बड़े राजनीतिक कार्यालय भवन बन रहे हैं। जिनमें फाइव स्टार होटल जैसी सुविधायें हैं।
        सवाल यह है कि अगर करप्शन नहीं हो रहा है तो इतना अरबों खरबों रूपया कहां से आ रहा है? खुद ईडी का कहना है कि उसने पिछले कुछ सालों में जो 400 केस पीएमएलए के तहत दर्ज किये उनमें से मात्र 10 में सज़ा दिला पाई है। पीएम का भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार का दाग न होने का आरोप कुछ ऐसा ही है जैसे कोई थाना इंचार्ज अपने इलाके में अपराध न होने का दावा तब करता है जबकि वो अपराध होने पर एफआईआर दर्ज ही नहीं करता। आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस के नये एप ग्रोक से पूछा गया तो उसने ही ऐसे एक दर्जन से अधिक करप्शन के गंभीर आरोप गिना दिये जिनमें बिड़ला सहारा डायरी, व्यापम घोटाला, नीरव मोदी, मेहुल चैकसी, राफेल सौदा, आईएल एंड एफएस संकट, पीएमसी बैंक, डीएचएफएल धोखाधड़ी, कार्वी ब्रोकिंग, यस बैंक, पेगासस, अडानी हिंडनबर्ग, नीट लीक, यूजीसी नेट लीक, अडानी रिश्वतखोरी, फ्रीडम 251 जैसे करप्शन के बड़े मामले शामिल हैं जिनको विपक्ष ने समय समय पर उठाया है और विकीपीडिया पर भी मौजूद हैं, लेकिन सरकार ने इनपर कभी कान ही नहीं दिये जिससे ये बिना जांच के सही या गलत साबित कैसे हो सकते हैं? शायर ने कहा है- 
*हम कहंे बात दलीलों से तो रद्द होती है,*
*उनके होंठो की ख़ामोशी भी सनद होती है।* 
 नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 21 August 2025

राहुल का एजेंडा

समझ से बाहर है कें.चु.आ. का फ़ंडा, 
भारी पड़ रहा है राहुल का एजेंडा!
0 राहुल गांधी के चुनाव चोरी के आरोपों पर केंचुआ यानी केंद्रीय चुनाव आयोग ने पिछले दिनों प्रैसवार्ता की लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने जो कुछ कहा वह बताने से अधिक छिपाने वाला था। उन्होंने कहा कि वोटिंग की वीडियो फुटेज देने से बहु बेटियों की प्राइवेसी खत्म होगी। पहले के सीईसी राजीव कुमार ने कहा था कि वीडियो देखने में 273 साल लगेंगे। इससे साफ पता लग रहा है कि वीडियो देने से केंचुआ की पोल खुल जायेगी। यही वजह है कि वे विपक्ष को मशीन रीडिंग वोटर लिस्ट भी नहीं दे रहे क्योंकि इससे उनकी धांधली पकड़ने में आसानी हो जायेगी। इतना ही नहीं आरोप लगने के बाद उल्टे केंचुआ ने बिहार में अपनी वेबसाइट पर डाली गयी डिजिटल वोटर लिस्ट हटाकर स्कैन की गयी सूची डाल दी है। केंचुआ राहुल गांधी के आरोपों की जांच कराने की बजाये उनको देश से माफी मांगने की धमकी दे रहा है।    
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      कंेचुआ यह भूल गया है कि उसके आयुक्त की नियुक्ति समिति में विपक्ष के नेता राहुल गांधी भी शामिल थे। एक तरह से राहुल उसके बाॅस हैं। चुनाव आयुक्त सेवक है। उनको जनता के टैक्स के पैसों से वेतन मिलता है। उसको पता होना चाहिये कि विपक्ष के नेता का पद संवैधानिक पद होता है। उसका दर्जा कैबिनेट मिनिस्टर के बराबर होता है। आज जब राहुल गांधी ने देश का एजेंडा तय करना शुरू कर दिया है तो केंचुआ सरकार और भाजपा बचाव में एक साथ खड़े हो गये हैं। क्या केंचुआ को पता नहीं है कि पिछले चुनाव में भाजपा को केवल 37 प्रतिशत मत मिले थे। उसमें भी राहुल गांधी के आरोपों की निष्पक्ष जांच के बाद ही पता चलेगा कि कितने असली थे और कितने फर्जी? अगर इनमें पूरे एनडीए यानी भाजपा के सहयोगियों के मत भी जोड़ लें तो भी यह 42 प्रतिशत होता है। इसका मतलब यह है कि आध्ेा से अधिक मतदाताओं का प्रतिनिधित्व विपक्ष करता है। इनमें से भी अगर गैर एनडीए और गैर इंडिया गठबंधन की 16 सीट निकाल दें तो भी विपक्ष के नेता राहुल गांधी बहुत बड़ी जनसंख्या का संसद में नेतृत्व करते हैं। लेकिन केंचुआ का रूख पूरे विपक्ष के साथ इतना बेरूखी शत्रुता और उपेक्षा का है जैसे उसे उनसे कोई लेना देना ही न हो। केंचुआ उनको मिलने तक का टाइम नहीं देता है। जब समय देता है तो उनके नेताओं की संख्या को लेकर सीमा लगाता है। उनके सवालों मांगों और आरोपों पर केंचुआ तमाम इधर उधर की बात करता है लेकिन मूल मुद्दे पर जवाब नहीं देता है। 
       केंचुआ आरोपों की जांच के लिये राहुल से शपथ पत्र की मांग कर रहा है लेकिन दो पूर्व चुनाव आयुक्त स्पश्ट कर चुके हैं कि एफिडेविट जांच से बचने का एक बहाना है क्योंकि नियमानुसार इसकी ज़रूरत ही नहीं है। यूपी में सपा के मुखिया अखिलेश यादव ने 18000 शपथ पत्र जमा कर केंचुआ से एक वर्ग और जाति के वोट काटे जाने की शिकायत की थी लेकिन आज तक केंचुआ उस पर चुप्पी साधे है। ऐसा लग रहा है कि राहुल गांधी पिछले कुछ दिनों से देश का एजेंडा तय कर रहे हैं। पहले संसद में उन्होंने मोदी सरकार को पहलगाम हमला पाकिस्तान से सीज़फायर और चीन द्वारा हमारी ज़मीन पर घुसपैठ के आरोपों पर घेरा जिस पर सरकार की काफी किरकिरी हुयी। इसके बाद राहुल ने सबूत के साथ भाजपा पर चुनाव आयोग के साथ मिलकर कई राज्यों और केंद्र का 2024 का चुनाव चुराने का आरोप लगाया जिससे सरकार भाजपा और केंचुआ आज तक बदहवास हैं लेकिन उनके पास इसकी कोई काट नहीं है। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने पलटकर कांग्रेस पर आधा दर्जन संसदीय सीटों पर फर्जी वोट से जीतने के हास्यास्पद और आत्माघाती आरोप लगाये जिससे राहुल के केंचुआ पर आरोपों की ही पुष्टि हुयी। राहुल गांधी जानते हैं कि सरकार चुनाव आयोग या कोर्ट उनके आरोपों की निष्पक्ष जांच नहीं करा सकते क्योंकि इससे न केवल कई राज्यों की भाजपा सरकारों बल्कि मोदी सरकार भी गिरने के कगार पर आ सकती है, साथ ही केंचुआ के आयुक्त से लेकर नीचे के कई अधिकारी कर्मचारी जेल जा सकते हैं। लेकिन इतना तो हुआ है कि जिस दिन से राहुल ने सप्रमाण भाजपा और केंचुआ पर चुनाव चुराने के गंभीर आरोप लगाये हैं, पूरी दुनिया में केंचुआ और मोदी सरकार की वैधता विश्वसनीयता और साख पर ज़बरदस्त बट्टा लगा है। 
        खुद भारतीयों की नज़र में इस सरकार की वैल्यू छवि और औकात कम हो गयी है। 17 अगस्त के दि हिंदू अख़बार में सीएसडीएस लोकनीति के सर्वे में बताया गया है कि 2019 में जहां एमपी राज्य में 57 प्रतिशत लोग चुनाव आयोग पर पूरा भरोसा करते थे वह घटकर अब मात्र 17 प्रतिशत रह गया है, यूपी में यह 56 से 21 प्रतिशत पर आ गया है। केरल में यह आंकड़ा 57 से 35 प्रतिशत रह गया है। जो लोग केंचुआ पर शून्य प्रतिशत विश्वास करते थे उनमें भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुयी है। एमपी में यह 6 से बढ़कर 22 प्रतिशत हो गया है। यूपी में ऐसे लोग 11 से बढ़कर 31 प्रतिशत तक जा पहुंचे हैं। यह कितने दुख और लज्जा की बात है कि एक समय था जब देश में ऐसे सर्वे होते थे तो जनता का कहना होता था कि उनको सबसे अधिक भरोसा तो सेना पर है लेकिन दूसरे नंबर पर चुनाव आयोग को वे विश्वसनीय मानते थे। इतना ही नहीं दुनिया के दूसरे देश केंचुआ को अपने यहां स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में सलाह सहयोग और कार्य करने को सादर आमंत्रित करते थे। सेंटर फाॅर दि स्टडी आॅफ डवलपिंग सोसायटी लोकनीति के सर्वे के आंकड़े यह भी बताते हैं कि जनता को 2024 के चुनाव में ही मोदी सरकार चले जाने का अनुमान था लेकिन जब विपक्ष के आरोप के अनुसार 79 सीटों पर गड़बड़ी करके भाजपा कम हार जीत के मार्जिन वाली अधिकांश सीट जीतकर तिगड़म से साझा सरकार बनाने में सफल हुयी तो एक साल में ही जनता का भरोसा मोदी सरकार से घटने लगा। वसीम बरेलवी ने क्या खूब कहा है- 
शराफ़तों की यहां कोई अहमियत ही नहीं,
किसी का कुछ ना बिगाड़ो तो कौन डरता है।
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 7 August 2025

चुनाव आयोग और राहुल गांधी

चुनाव आयोग राहुल गांधी को सप्रमाण गलत साबित कर सकता है ?
0 एक तरफ चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची का विशेष सघन पुनरीक्षण कर 65 लाख से अधिक लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया है। इसका आधार इन मतदाताओं का मर जाना, बिहार छोड़कर दूसरे स्थानों पर हमेशा के लिये चला जाना और उनका नाम दो दो जगह मतदाता सूची में होना बताया गया है। वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी ने ताज़ा आरोप लगाया है कि महाराष्ट्र हरियाणा में फर्जी वोटिंग हुयी है। 5 बजे के बाद वोटर टर्न आउट अचानक बढ़ गया। महाराष्ट्र में 40 लाख वोटर रहस्यमय हैं। हमें लगता है इस बड़े खुलासे का आयोग पर कोई खास असर नहीं होगा क्योंकि वह पूरी तरह से मनमानी बेशर्मी और तानाशाही पर कायम है। चुनाव आयोग को स्वस्थ लोकतंत्र पारदर्शी चुनाव और निष्पक्षता के लिये राहुल को सबूत के साथ गलत साबित करना होगा।    
              -इक़बाल हिंदुस्तानी
      राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं। वह बार बार चुनाव आयोग को सचेत कर रहे हैं कि वह निष्पक्ष काम करे नहीं तो सत्ता में आने पर जांच कराकर जो चुनाव अधिकारी और कर्मचारी दोषी पाये जायेंगे उनको रिटायर हो जाने के बावजूद तलाश कर कड़ी कानूनी सज़ा दी जायेगी। राहुल ने प्रैसवार्ता कर कहा कि चुनाव प्रक्रिया लंबी चलने से लोगों का शक बढ़ रहा है। महीनों चुनाव चलने के बाद दलों के आंतरिक सर्वे एग्जिट पोल और ओपिनियन पोल से बिल्कुल अलग चैंकाने वाले परिणाम कैसे आ जाते हैं? सत्ता विरोधी भावना यानी एंटी इनकम्बेसी से केवल बीजेपी कैसे बच जाती है? जबकि लोकतंत्र में हर दल इसका शिकार होता ही है। राहुल ने कहा कि डिजिटल वोटर लिस्ट आज तक नहीं देने से हमें यकीन हो चुका है कि महाराष्ट्र में चुनाव आयोग ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव चुराया है। राहुल ने वोट चोरी की मिसाल देते हुए कहा कि कर्नाटक की महादेवपुरा सीट पर 6.5 लाख में से एक लाख से अधिक वोट की चोरी हुयी है। राहुल ने कहा कि 11000 वोटर ने तीन तीन बार वोट दिये हैं। 40,000 वोटर्स की मकान संख्या शून्य है। 
         एक पते पर बड़ी तादाद में वोटर कैसे बन गये? एक ही वोटर कई राज्यों में वोट कैसे डाल रहा है? क्या चुनाव आयोग फर्जीवाड़ा नहीं कर रहा है? हमें ना देकर चुनाव के सीसीटीवी फुटेज आयोग ने डिलीट क्यों किये अगर कुछ गड़बड़ नहीं थी? राहुल गांधी का यह भी कहना है कि उनको राजस्थान छत्तीसगढ़ और एमपी में हुए विधानसभा चुनाव के बाद से ही आयोग की हरकतों को लेकर शक होने लगा था लेकिन हरियाणा महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनाव के अप्रत्याशित चुनाव परिणाम देखकर उनका आयोग पर पक्षपात का संदेह पूरी तरह से विश्वास में बदल गया। इसकी पुष्टि के लिये उन्होंने अपने स्तर पर मतदाता सूची की जांच कराई जिससे उनको ऐसे तथ्य प्रमाण और दस्तावेज़ मिल गये हैं जिनसे यह पता लगता है कि चुनाव आयोग सत्ताधारी भाजपा के पक्ष में काम कर रहा है? राहुल ने चुनाव आयोग पर चुनाव में वोट चुराने और भाजपा को धोखे से जिताने तक का गंभीर आरोप लगाया है। उनका कहना है कि आयोग की नीयत में खोट इस बात से ही साबित हो जाता है कि उसने आज तक बार बार मांगने के बावजूद महाराष्ट्र के मतदाताओं की डिजिटल लिस्ट उनको उपलब्ध नहीं कराई है। इसकी वजह राहुल को यह लगती है कि इससे आयोग का यह गोरखधंधा खुल जायेगा कि जब पूरे महाराष्ट्र में कुल बालिग लोग ही 9 करोड़ 57 लाख हैं तो कुल मतदाता बढ़कर 9 करोड़ 70 लाख कैसे हो सकते हैं? 
        यह भी सच है कि किसी भी राज्य या देश में सौ फीसदी वयस्क लोगों के वोट बनना भी असंभव होता है। साथ ही यह सवाल भी शक को बढ़ाता है कि राज्य के चुनाव में शाम 5 बजे के बाद अचानक 70 लाख वोटर्स कहां से निकल आये जिन्होंने रात 11 बजे तक मतदान किया। विपक्ष का यह भी आरोप है कि आयोग ने नये मतदाता बनाने के नाम पर एक एक घर एक एक फ्लैट और एक एक अपार्टमेंट में 100 से 200 तक नये मतदाता बिना कड़ी जांच पड़ताल के कैसे संदिग्ध रूप से बना दिये? विपक्ष का कहना है कि अब बिहार उसके बाद बंगाल और फिर पूरे देश में स्पेशल इंटैन्सिव रिवीज़न के नाम पर चुनाव आयोग सत्ताधारी दल के इशारे पर मनमाने तरीके से विपक्ष के परंपरागत समर्थक मतदाता खासतौर पर दलित आदिवासी अल्पसंख्यक और गरीब कमज़ोर वर्ग के वोट एक सुनियोजित षड्यंत्र, अभियान और योजना के तहत काटने पर तुला है। विपक्ष का आरोप है कि जो विपक्ष के असली वोटर काटे जाते हैं उनके बदले भाजपा के उतने ही फर्जी मतदाता जोड़ दिये जाते हैं जिससे हर सीट पर 20 से 30 हज़ार वोट का अंतर आ जाता है। आयोग बार बार सुप्रीम कोर्ट के सलाह देने के बावजूद आधार राशन और वोटर कार्ड को उन 11 दस्तावेज़ की सूची में शामिल करने को तैयार नहीं है जो अधिकांश लोगों के पास उपलब्ध हैं। यहां तक कि आयोग पूरी बेशर्मी और ढीठता से उस मतदाता पहचान पत्र को भी वैध मानने से मना कर रहा है जो उसने खुद ही जारी किया है। 
        आयोग से पूछा जाना चाहिये कि क्या उसने फर्जी मतदाता पहचान पत्र बनाये हैं? रहा कुछ फर्जी राशन आधार और वोटर कार्ड का तो जो 11 डाक्यूमेंट की लिस्ट आयोग ने मतदाता जांच के लिये जारी की है, उनमें भी कुछ नकली और फर्जी हो ही सकते हैं जैसा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि दुनिया का ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है जिसको कुछ लोग फर्जी ना बना लेते हों लेकिन इसकी जांच कर व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे लोगों की पहचान कर उनके कागजों को अमान्य किया जा सकता है लेकिन इस बहाने सबके आधार वोटर और राशन कार्ड को ठुकराना गलत है। सच तो यह है कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता सरकार ने उसी दिन खत्म कर दी थी जिस दिन चुनाव आयुक्त चुनने वाली कमैटी से चीफ जस्टिस को बाहर कर विपक्ष के नेता व पीएम के साथ उनके एक और मंत्री को शामिल करने का कानून बना था। यही वजह थी इस दौरान एक चुनाव आयुक्त गोयल ने इस्तीफा भी दे दिया था। रही सही कसर चुनाव आयोग ने अपने विवादित पक्षपातपूर्ण और अड़ियल रूख से पूरी कर विपक्ष को खुद पर बार बार उंगली उठाने का मौका देकर पूरी कर दी है। 
          चुनाव आयोग पर बार बार सरकार की कठपुतली बनने के विपक्ष आरोप लगाता आ रहा है लेकिन आयोग इस बारे में गंभीर नज़र नहीं आता कि उसको अपनी विश्वसनीयता साख और स्वायत्ता की कोई खास चिंता है। आयोग को चाहिये था कि वह सरकार से कहता कि वह गृह मंत्रालय से लोगों की नागरिकता की जांच कराये उसके बाद जो लोग पर्याप्त दस्तावेज़ पेश नहीं कर पायेंगे उनके सामने अपीलीय अधिकारी फोरेन ट्रियूब्नल या कोर्ट जाने का अधिकार रहता है। जब अंतिम रूप से यह तय हो जाये कि कोई व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है तो उसका नाम चुनाव आयोग की सूची ही क्या सरकार की ओर से मिलने वाली हर प्रकार की सुविधा से काटा जा सकता है। लेकिन चुनाव आयोग पता नहीं किसके एजेंडे पर चलने पर अड़ा है। शायर ने शायद चुनाव आयोग की बेहिसी पर कहा है- *उसके नज़दीक ग़म ए तर्क ए वफ़ा कुछ भी नहीं, मुतमइन ऐसा है वो जैसे हुआ कुछ भी नहीं।* 
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।

Monday, 28 July 2025

धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद

*धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद,* 
*इनपर क्यों हो रहा है विवाद?*
0 भारत के कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने राज्यसभा में बताया है कि संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद शब्द निकालने का सरकार का फिलहाल कोई इरादा नहीं है। कानून मंत्री समाजवादी पार्टी के सांसद रामजी लाल सुमन के सवाल का लिखित जवाब दे रहे थे। उन्होंने सदस्यों को आश्वस्त किया कि ऐसा करने के लिये मोदी सरकार ने कोई संवैधानिक या कानूनी प्रक्रिया भी शुरू नहीं की है। साथ ही उनका यह भी कहना था कि इन शब्दों पर राजनीतिक और सार्वजनिक मंचों पर चर्चा चलती रहेगी। आपको याद दिलादें कि आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होशबोले ने कुछ समय पूर्व यह कहकर चर्चा शुरू की थी कि इन शब्दों को संविधान में इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान गलत तरीके से जोड़ा था।  
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      संविधान विशेषज्ञ जानते हैं कि हमारा संविधान मूल रूप से सेकुलर और सोशलिस्ट ही है। संविधान के तमाम अनुच्छेद उपबंध और धारायें इस तथ्य को बार बार परिभाषित करते हैं। इसकी भावना और आत्मा पूरी तरह धर्म जाति क्षेत्र रंग नस्ल भाषा मत आस्था बोली विचारधारा अमीर गरीब शिक्षित अशिक्षित और सबसे बड़े पद पर बैठे नागरिक से लेकर आम आदमी तक सबके लिये बिना पक्षपात बिना भेदभाव और बिना पूर्वाग्रह के एक से अधिकार समान अवसर गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार और वोट देने से लेकर चुनाव लड़ने तक का बराबर हक देने की गारंटी देती है। यह सच है कि संविधान की प्रस्तावना में 1976 में इंदिरा सरकार ने एमरजैंसी के दौरान 42 वां संशोधन करके ये दोनों शब्द संविधान लागू होने के लगभग 25 साल बाद अलग से जोड़े थे। इन शब्दों को पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ तो कैंसर तक बता चुके हैं। जबकि केंद्रीय मंत्री शिवराज चैहान ने इन शब्दोें की तीखी आलोचना की थी। इसी को बहाना बनाकर इन शब्दों को संविधान से निकालने के लिये संघ परिवार से जुड़े कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी। लेकिन सबसे बड़ी अदालत ने इस मांग को ठुकरा दिया। कोर्ट का कहना था कि चूंकि हमारे संविधान का हर पेज हर लाइन और हर शब्द सेकुलर और सोशलिस्ट होने की पुष्टि पहले ही करता है तो इन शब्दों को बाद में जोड़े जाने से कोई असंवैधानिक गैर कानूनी या जनविरोधी काम नहीं हुआ है।
       याचिका में दलील दी गयी थी कि ये शब्द संविधान सभा ने नहीं अपनाये क्योंकि इनका समावेश पूर्वव्यापी था, यह कुतर्क भी दिया गया कि आपातकाल में जब ये शब्द संविधान में शामिल किये गये, उस समय लोकसभा भंग हो चुकी थी लिहाज़ा यह संशोधन जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते और इन शब्दों से आर्थिक स्वतंत्रता व धार्मिक तटस्थता प्रतिबंधित होती है। दरअसल यह सब संघ परिवार और भाजपा सरकार का कोरा झूठ व दुष्प्रचार है क्योंकि वे देश को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। वे देश में खुलकर 2014 के बाद से पूंजीवादी नीतियां भी लागू कर रहे हैं। उनको हर समय यह खतरा सताता रहता है कि उनको असली वैचारिक चुनौती कांग्रेस या सपा टीएमसी एनसीपी शिवसेना जेएमएम या आरजेडी जैसे क्षेत्रीय दलों से नहीं बल्कि कम्युनिस्टों से मिल सकती है। सबको पता है कि वामपंथी ही सही मायने में समाजवाद और धर्मनिर्पेक्षता के वास्तविक पैरोकार हैं। वे भले ही भारत में धर्म व जाति की राजनीति के सामने फिलहाल कमज़ोर पड़ गये हैं लेेकिन आने वाले समय में उनका समानता धर्मनिर्पेक्षता और सबको शिक्षा सबको काम का नारा ही हिंदुत्व के लिये सबसे बड़ी चनौती बन सकता है। संघ परिवार का यह भी आरोप रहा है कि धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर अब तक सेकुलर दलों ने केवल अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण किया है। लेकिन वह यह नहीं बताता कि वह खुद बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता की राजनीति करके कौन सी सही और सच्ची धर्मनिर्पेक्षता का पालन कर रहा है?
       वह अपने ही दिये गये नारे पंथनिर्पेक्षता वसुधैवकुटंबकम और न्याय सबको तुष्टिकरण किसी का नहीं से भी कोसों दूर है। आज भाजपा के राज में कानून के दो पैमाने साफ नज़र आते हैं। आज भी संविधान पर चलने उसकी बार बार शपथ लेने और संविधान दिवस मनाने के बावजूद व्यवहार में सरकारें एक वर्ग के साथ खुलेआम पक्षपात करती नज़र आती हैं। आप किस धर्म को मानेंगे क्या खायेंगे क्या पहनेंगे किससे प्यार करेंगे किससे शादी करेंगे और क्या सोचेंगे यह सब सरकार तय करने लगी है। ऐसे पक्षपातपूर्ण और संवैधनिक स्वतंत्रता को खत्म कर देने वाले कानून बनाये जा रहे हैं जिससे कल आप अगर किसी खास विचार धारा पार्टी या सोच को व्यक्त करेंगे तो भी महाराष्ट्र के नये अर्बन नक्सल कानून के तहत आपको जेल भेजा जा सकता है। सरकार की आलोचना करने मात्र से कई लोग कई कई साल से बिना ज़मानत जेल में पड़े हैं जबकि संघ भाजपा से जुड़े कई लोग प्रथम दृष्टि में अपराध के दोषी लगने के बावजूद या तो थाने में रपट तक नहीं होने देते या हल्की धाराओं में एफआईआर मजबूरी मंे करनी पड़ जाये तो बाद में तरमीम कर फाइनल रिपोर्ट से लेकर विरोधाभासी चार्जशीट गवाहों को तोड़ना सबूतों को नष्ट करना और अंत में न्यायपालिका के कुछ जजों पर दबाव बनाकर अपने लोगों को बरी करा लेना का विपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के कुछ सीनियर वकील अकसर आरोप लगाते रहते हैं।
        अटल बिहारी की सरकार के दौरान संविधान समीक्षा आयोग भी बना था। एक बार बिहार चुनाव से पहले संघ प्रमुख संविधान में दिये गये आरक्षण की समीक्षा की बात कहकर राजनीतिक विवाद भी खड़ा कर चुके हैं। 2024 के आम चुनाव से पहले जब भाजपा ने इस बार चार सौ पार का नारा दिया तो उसके कुछ नेताओं ने इसका कारण संविधान बदलने की मंशा भी व्यक्त कर दी थी। सच तो यह है कि संविधान की जगह मनुस्मृति लाने की इच्छा कुछ लोग अभी भी रखते हैं। यह सरकार पूंजीवाद पर भी खुलकर चल रही है। काॅरपोरेट से खुलकर चुनावी चंदा लिया जा रहा है। चंद चहेते पूंजीपतियों को इसके एवज़ में नियम कानूनों को एक तरफ रखकर ध्ंाधा दिया जा रहा है। पुलिस सीबीआई इडी, चुनाव आयोग मानवाधिकार आयोग अल्पसंख्यक आयोग अनुसूचित जाति आयोग पिछड़ा आयोग जैसी स्वायत्त संस्थाओं को मोदी सरकार ने लगभग पूरी तरह और न्यायालय को आंशिक रूप से साध लिया है। इसलिये साफ है कि इनको धर्मनिर्पेक्षता और समाजवाद से समस्या है और आगे भी रहेगी। शायर ने राजनेताओं के ऐसे ही विरोधाभास पर क्या खूब कहा है- *जो मेरे ग़म में शरीक था जिसे मेरा ग़म अज़ीज़ था, मैं खुश हुआ तो पता चला वो मेरी खुशी के खिलाफ़ है।* 
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*