*उसकी आयु नहीं फिटनेस बतायेगी!*
0 दिल्ली में 10 साल पुराने डीज़ल और 15 साल पुराने पेट्रोल के वाहनों पर एकाएक रोक लगाकर पहले वहां की सरकार ने तुगलकी फरमान जारी किया। उसके बाद जब लोगों का गुस्सा सामने आया तो इस आदेश पर पुनर्विचार के नाम पर कुछ समय के लिये रोक लगा दी गयी। लेकिन यह तय मानकर चलिये कि कुछ दिन बाद इस मनमाने आदेश पर कुछ बदलाव करके फिर अमल होगा। इसकी वजह यह है कि सरकार की मंशा एकदम साफ है। उसको वे सब काम करने हैं जिससे पूंजीवाद को बढ़ावा मिलता है। समाजवाद यानी समाज के कमज़ोर गरीब और मीडियम क्लास को इससे क्या नुकसान होगा यह सरकार की चिंता का विषय नहीं है। इस बात को ये सरकारें छिपाती भी नहीं हैं और बार बार जीतकर भी आती हैं।
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
एक जुलाई से दिल्ली मंे वायु प्रदुषण कम करने के नाम पर 10 साल पुराने डीज़ल और 15 साल पुराने पेट्रोल के चैपहिया वाहनों पर अचानक रोक ही नहीं लगाई गयी, बल्कि उनको पेट्रोल पंपों पर बजाये तेल ना देकर चालान काटने के जबरन पकड़कर कबाड़ करने का अभियान चला दिया गया। वो तो अच्छा हुआ दो तीन बाद ही लोगों में भयंकर रोष देखकर सरकार ने अपने कदम फिलहाल पीछे खींच लिये। लेकिन यह समझना कि अब यह अभियान आगे कुछ अगर मगर के साथ फिर से नहीं चलेगा, मूर्खों के स्वर्ग में रहना होगा। दरअसल कम लोगों को पता होगा कि इस अभियान के पीछे सरकार की असली मंशा क्या रही होगी? आंकड़े बताते हैं कि देश में निजी वाहनों की बिक्री में गिरावट आ रही है। कार बनाने वाली कंपनियों के पास तीन माह से अधिक तक की इन्वेंट्री बिना सेल के बाकी है। कंपनियों को नये वाहन बनाने में परेशानी आ रही है क्योंकि उनके पास उनको बनाकर स्टोर करने तक के लिये और स्थान नहीं बचा है। सरकार की पूंजीवादी नीतियों से मीडियम क्लास जो कारें और नये मकान सबसे अधिक खरीदता है, आजकल सदमे में हैं। उसकी जेब खाली हो रही है। उसकी आय घट रही है और उसका कर्ज़ बढ़ता जा रहा है। इन सरकारों का सबसे बड़ा समर्थक वर्ग भी यही क्लास रहा है और बेचारा इसकी कीमत भी यही चुका रहा है क्योंकि गरीब के पास खोने के लिये कुछ अधिक है नहीं और अमीर को इन बातों की चिंता नहीं है।
जानकारों का कहना है कि विश्व में किसी भी देश में प्राइवेट व्हेकिल की निर्धारित आयु नहीं होती है बल्कि उनको फिटनेस के हिसाब से 10, 20 या 30 साल तक चलाने की छूट दी जाती है और साथ ही अगर वाहन अधिक चलने या रखरखाव सही नहीं रखने से दो चार साल बाद ही खटारा हो जाता है तो उसको भी सीज़ कर दिया जाता है। हमारे देश में भी नियम है कि आप अपना वाहन तब तक ही चला सकते हैं जब तक उसका प्रदूषण प्रमाण पत्र ओके है। मतलब प्रदूषण फैलाने वाला फोर व्हीलर ही नहीं कोई सा वाहन जब आप चला ही नहीं सकते तो इसमें केवल कारों या भारी वाहनों पर 10 या 15 साल की तय उम्र का कानून कहां से आ गया? सच तो यह है कि वाहनों से सबसे अधिक पाॅल्यूशन चलने से नहीं जाम या रेलवे फाटकों पर उनके रूके रहने से होता है। या फिर भीड़ अधिक होने पर उनके धीरे धीरे चलने रूकने फिर से चलने बंद करने फिर स्टार्ट करने बार बार गियर बदलने या फिर रेस घटाने बढ़ानेे से होता है। वाहन आप अगर आज ही शोरूम से लाये हैं फिर भी वह इंजन चालू कर कहीं जाम में फंसा है तो काॅर्बन डाईआॅक्साइड तेजी से और अधिक छोड़ेगा ही छोड़ेगा। इसमें नई पुरानी डीज़ल पेट्रोल 10 साल 15 साल का कोई खास अंतर नहीं पड़ता है।
दूसरी पते की बात यह है कि सबसे अधिक प्रदूषण दिल्ली में टू व्हीलर्स करते हैं। लेकिन सरकार की हिम्मत नहीं कि उनको उम्र के हिसाब से बैन करने की बात भी सोचे। टू व्हीलर वाला वर्ग बहुत बड़ा है। सवाल यह भी है कि सरकार एक झटके में 62 लाख वाहन कैसे पकड़कर कैसे उनको स्क्रैप में बेचकर आपके हाथ में लाखों की गाड़ी के चंद हज़ार रूपये पकड़ा सकती है? मीडियम क्लास परिवारों ने किसी तरह से पेट काटकर पाई पाई जोड़कर या बैंक से कर्ज़ पर ये वाहन लिये होंगे ये उनका दुखता हुआ दिल ही बेहतर जानता होगा। हर साल माॅडल के चक्कर में कार बदल देने वाले मुट्ठीभर अमीर लोगों पर इस अभियान का क्या असर पड़ना है? अगर सरकार का यह जनविरोधी प्रयोग दिल्ली में सफल हो जाता है तो इसके बाद यूपी राजस्थान हरियाणा सहित एनसीआर के अन्य प्रदेशों का नंबर आना तय है। इस चक्कर में वाहन निर्माताओं का तो मज़ा आ जायेगा लेकिन वाहन मालिकों के लिये यह सज़ा बन जायेगा। सरकार यह सोचने को तैयार नहीं है कि दिल्ली राजधनी है और वहां पूरे भारत से लोग अपने अपने काम से आते हैं। उनकी मजबूरी है। उनका शासन प्रशासन से जुड़े कामों के साथ साथ पिकनिक ही नहीं इलाज और रोज़गार के लिये आना ज़रूरत है। इसके लिये जो शानदार जानदार और आसानी से उपलब्ध होने वाला यातायात साधन होना चाहिये वो केवल मैट्रो ही है। लेकिन विडंबना देखिये कि उस तक पहुंचने के लिये भी कार होना ज़रूरी है।
इसका विकल्प केवल आॅटो और किराये की ओला उूबर की टैक्सी है जिसका किराया सरकार ने पहले व्यस्त समय पर अप्रैल में डेढ़ गुना किया था अब सीधा दोगुना कर दिया है। सरकार से यह सवाल भी पूछा जाना चाहिये कि माना आपने दिल्ली में ये वाहन आज नहीं तो कल चलने बंद कर ही दिये तो लोग उनको आधे पौने दाम पर आसपास के दूसरे राज्यों में बेच देंगे। क्या वे प्रदेषण वाले वाहन लोगों के गैराज में खड़े रहेंगे या फिर जहां जायेंगे वहां ही प्रदूषण फैलायेंगे तो क्या वहां के लोगों का जीवन कम मूल्यवान है जो दिल्ली को बचाकर आप बाकी देश के लोगों को साफ आॅक्सीजन की जगह काॅर्बन डाईआॅक्साइड से समय से पहले बीमार बना देना चाहते हैं? अलग अलग स्थान के आधार पर नागरिक नागरिक में यह अंतर क्या सरकार को शोभा देता है? धर्म के आधार पर तो यह सरकार पहले ही अंतर करने के लिये विपक्ष के आरोपों का सामना करती रही है। इस मामले में सरकार पर यह भी आरोप लगता रहा है कि वाहन कंपनियां सत्ताधरी दल को मोटा चुनावी चंदा देकर अपने पक्ष में नीतियां बनवाने का प्रयास करती रही हैं। साथ ही जब लोग लाखों वाहन कबाड़ कर देने पर नये वाहन खरीदेंगे तो सरकार का टैक्स कलैक्शन और अर्थव्यवस्था का साइज़ बढ़ाने का लक्ष्य भी पूरा होगा? ग़ालिब ने क्या खूब कहा है- ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना वीरानी को क्या कम है, हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो।
*नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*