Saturday, 12 July 2025

वाहन की आयु नहीं फिटनेस

*वाहन चलाने लायक है या नहीं,*
*उसकी आयु नहीं फिटनेस बतायेगी!*
0 दिल्ली में 10 साल पुराने डीज़ल और 15 साल पुराने पेट्रोल के वाहनों पर एकाएक रोक लगाकर पहले वहां की सरकार ने तुगलकी फरमान जारी किया। उसके बाद जब लोगों का गुस्सा सामने आया तो इस आदेश पर पुनर्विचार के नाम पर कुछ समय के लिये रोक लगा दी गयी। लेकिन यह तय मानकर चलिये कि कुछ दिन बाद इस मनमाने आदेश पर कुछ बदलाव करके फिर अमल होगा। इसकी वजह यह है कि सरकार की मंशा एकदम साफ है। उसको वे सब काम करने हैं जिससे पूंजीवाद को बढ़ावा मिलता है। समाजवाद यानी समाज के कमज़ोर गरीब और मीडियम क्लास को इससे क्या नुकसान होगा यह सरकार की चिंता का विषय नहीं है। इस बात को ये सरकारें छिपाती भी नहीं हैं और बार बार जीतकर भी आती हैं।    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      एक जुलाई से दिल्ली मंे वायु प्रदुषण कम करने के नाम पर 10 साल पुराने डीज़ल और 15 साल पुराने पेट्रोल के चैपहिया वाहनों पर अचानक रोक ही नहीं लगाई गयी, बल्कि उनको पेट्रोल पंपों पर बजाये तेल ना देकर चालान काटने के जबरन पकड़कर कबाड़ करने का अभियान चला दिया गया। वो तो अच्छा हुआ दो तीन बाद ही लोगों में भयंकर रोष देखकर सरकार ने अपने कदम फिलहाल पीछे खींच लिये। लेकिन यह समझना कि अब यह अभियान आगे कुछ अगर मगर के साथ फिर से नहीं चलेगा, मूर्खों के स्वर्ग में रहना होगा। दरअसल कम लोगों को पता होगा कि इस अभियान के पीछे सरकार की असली मंशा क्या रही होगी? आंकड़े बताते हैं कि देश में निजी वाहनों की बिक्री में गिरावट आ रही है। कार बनाने वाली कंपनियों के पास तीन माह से अधिक तक की इन्वेंट्री बिना सेल के बाकी है। कंपनियों को नये वाहन बनाने में परेशानी आ रही है क्योंकि उनके पास उनको बनाकर स्टोर करने तक के लिये और स्थान नहीं बचा है। सरकार की पूंजीवादी नीतियों से मीडियम क्लास जो कारें और नये मकान सबसे अधिक खरीदता है, आजकल सदमे में हैं। उसकी जेब खाली हो रही है। उसकी आय घट रही है और उसका कर्ज़ बढ़ता जा रहा है। इन सरकारों का सबसे बड़ा समर्थक वर्ग भी यही क्लास रहा है और बेचारा इसकी कीमत भी यही चुका रहा है क्योंकि गरीब के पास खोने के लिये कुछ अधिक है नहीं और अमीर को इन बातों की चिंता नहीं है। 
     जानकारों का कहना है कि विश्व में किसी भी देश में प्राइवेट व्हेकिल की निर्धारित आयु नहीं होती है बल्कि उनको फिटनेस के हिसाब से 10, 20 या 30 साल तक चलाने की छूट दी जाती है और साथ ही अगर वाहन अधिक चलने या रखरखाव सही नहीं रखने से दो चार साल बाद ही खटारा हो जाता है तो उसको भी सीज़ कर दिया जाता है। हमारे देश में भी नियम है कि आप अपना वाहन तब तक ही चला सकते हैं जब तक उसका प्रदूषण प्रमाण पत्र ओके है। मतलब प्रदूषण फैलाने वाला फोर व्हीलर ही नहीं कोई सा वाहन जब आप चला ही नहीं सकते तो इसमें केवल कारों या भारी वाहनों पर 10 या 15 साल की तय उम्र का कानून कहां से आ गया? सच तो यह है कि वाहनों से सबसे अधिक पाॅल्यूशन चलने से नहीं जाम या रेलवे फाटकों पर उनके रूके रहने से होता है। या फिर भीड़ अधिक होने पर उनके धीरे धीरे चलने रूकने फिर से चलने बंद करने फिर स्टार्ट करने बार बार गियर बदलने या फिर रेस घटाने बढ़ानेे से होता है। वाहन आप अगर आज ही शोरूम से लाये हैं फिर भी वह इंजन चालू कर कहीं जाम में फंसा है तो काॅर्बन डाईआॅक्साइड तेजी से और अधिक छोड़ेगा ही छोड़ेगा। इसमें नई पुरानी डीज़ल पेट्रोल 10 साल 15 साल का कोई खास अंतर नहीं पड़ता है। 
       दूसरी पते की बात यह है कि सबसे अधिक प्रदूषण दिल्ली में टू व्हीलर्स करते हैं। लेकिन सरकार की हिम्मत नहीं कि उनको उम्र के हिसाब से बैन करने की बात भी सोचे। टू व्हीलर वाला वर्ग बहुत बड़ा है। सवाल यह भी है कि सरकार एक झटके में 62 लाख वाहन कैसे पकड़कर कैसे उनको स्क्रैप में बेचकर आपके हाथ में लाखों की गाड़ी के चंद हज़ार रूपये पकड़ा सकती है? मीडियम क्लास परिवारों ने किसी तरह से पेट काटकर पाई पाई जोड़कर या बैंक से कर्ज़ पर ये वाहन लिये होंगे ये उनका दुखता हुआ दिल ही बेहतर जानता होगा। हर साल माॅडल के चक्कर में कार बदल देने वाले मुट्ठीभर अमीर लोगों पर इस अभियान का क्या असर पड़ना है? अगर सरकार का यह जनविरोधी प्रयोग दिल्ली में सफल हो जाता है तो इसके बाद यूपी राजस्थान हरियाणा सहित एनसीआर के अन्य प्रदेशों का नंबर आना तय है। इस चक्कर में वाहन निर्माताओं का तो मज़ा आ जायेगा लेकिन वाहन मालिकों के लिये यह सज़ा बन जायेगा। सरकार यह सोचने को तैयार नहीं है कि दिल्ली राजधनी है और वहां पूरे भारत से लोग अपने अपने काम से आते हैं। उनकी मजबूरी है। उनका शासन प्रशासन से जुड़े कामों के साथ साथ पिकनिक ही नहीं इलाज और रोज़गार के लिये आना ज़रूरत है। इसके लिये जो शानदार जानदार और आसानी से उपलब्ध होने वाला यातायात साधन होना चाहिये वो केवल मैट्रो ही है। लेकिन विडंबना देखिये कि उस तक पहुंचने के लिये भी कार होना ज़रूरी है। 
    इसका विकल्प केवल आॅटो और किराये की ओला उूबर की टैक्सी है जिसका किराया सरकार ने पहले व्यस्त समय पर अप्रैल में डेढ़ गुना किया था अब सीधा दोगुना कर दिया है। सरकार से यह सवाल भी पूछा जाना चाहिये कि माना आपने दिल्ली में ये वाहन आज नहीं तो कल चलने बंद कर ही दिये तो लोग उनको आधे पौने दाम पर आसपास के दूसरे राज्यों में बेच देंगे। क्या वे प्रदेषण वाले वाहन लोगों के गैराज में खड़े रहेंगे या फिर जहां जायेंगे वहां ही प्रदूषण फैलायेंगे तो क्या वहां के लोगों का जीवन कम मूल्यवान है जो दिल्ली को बचाकर आप बाकी देश के लोगों को साफ आॅक्सीजन की जगह काॅर्बन डाईआॅक्साइड से समय से पहले बीमार बना देना चाहते हैं? अलग अलग स्थान के आधार पर नागरिक नागरिक में यह अंतर क्या सरकार को शोभा देता है? धर्म के आधार पर तो यह सरकार पहले ही अंतर करने के लिये विपक्ष के आरोपों का सामना करती रही है। इस मामले में सरकार पर यह भी आरोप लगता रहा है कि वाहन कंपनियां सत्ताधरी दल को मोटा चुनावी चंदा देकर अपने पक्ष में नीतियां बनवाने का प्रयास करती रही हैं। साथ ही जब लोग लाखों वाहन कबाड़ कर देने पर नये वाहन खरीदेंगे तो सरकार का टैक्स कलैक्शन और अर्थव्यवस्था का साइज़ बढ़ाने का लक्ष्य भी पूरा होगा? ग़ालिब ने क्या खूब कहा है- ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना वीरानी को क्या कम है, हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 3 July 2025

वोटर की नागरिकता

आयोग का काम है चुनाव कराना, 
 ना कि नागरिकता पता लगाना?
0 जो चुनाव आयोग हरियाणा महाराष्ट्र और दिल्ली के चुनावों को लेकर पहले ही विपक्ष के निशाने पर था। अब बिहार के विधानसभा चुनाव चार महीने दूर होने पर एक माह के भीतर मतदाता सूची के सघन परीक्षण के बहाने मतदाताओं की नागरिकता के प्रमाण मांगने को लेकर एक बार फिर विवाद के घेरे में आ गया है। यह माना कि आयोग को यह जांचने का अधिकार है कि जो भी नागरिक मतदाता बनना चाहते हैं वे चुनाव में वोट देने का संवैधानिक अधिकार रखते हैं या नहीं? लेकिन सवाल यही है कि जब आयोग किसी नागरिक को मतदाता बनाता है तो उसी समय यह जांच क्यों नहीं की जाती कि वह आदमी वोटर बनने का सही पात्र है कि नहीं? अचानक जल्दबाज़ी और आनन फानन में आयोग का यह कदम चर्चा में है।    
                 -इक़बाल हिंदुस्तानी
     बिहार में लगभग 8 करोड़ मतदाता हैं। इनमें से 59 प्रतिशत 40 साल या उससे कम आयु के हैं। इनमें से 4 करोड़ 75 लाख को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी नहीं तो वे वोटर लिस्ट से अपने आप ही बाहर हो जायेंगे। चुनाव आयोग ने नागरिकता साबित करने के लिये कुल 11 दस्तावेज़ तय किये हैं। अभी तक मतदाता मतलब 18 साल आयु पूरी करना माना जाता था। आपको अपना वर्तमान पता बताना होता था और आप एक फार्म भरकर आराम से मतदाता बन जाते थे। लेकिन अब यह दावा किया जा रहा है कि चूंकि बिहार में बड़ी तादाद में ऐसे लोग वोटर बन गये हैं जो मूल रूप से तो बिहारी हैं लेकिन वे काम ध्ंाध्ेा के सिलसिले में राज्य से बाहर रहते हैं। ऐसे लोगों को उसी स्थान पर मतदाता बनने के लिये कहा जा रहा है जहां वे रोज़गार करते हैं। यहां तक तो बात समझ में आती है लेकिन आयोग यह भी दावा कर रहा है कि बड़ी संख्या में ऐसे घुसपैठिये भी मतदाता बन गये हैं जो भारत के नागरिक नहीं हैं। 
      सवाल यह है कि जब वह मतदाता सूची में किसी का नाम जोड़ता है तब उनसे ऐसे दस्तावेज़ क्यों नहीं मांगे गये जिससे यह साबित होता हो कि वे देश के नागरिक हैं। दूसरी बात यह है कि यह सरकार का काम है कि वह घुसपैठियों की जांच समय समय पर और देश की सीमाओं पर करे जिससे कोई विदेशी नागरिक देश में प्रवेश ही ना कर सके। अगर जांच में यह सच सामने आता है कि बड़े पैमाने पर घुसपैठिये देश में रह रहे हैं तो उनका नाम केवल चुनाव आयोग की मतदाता सूची से ही क्यों भारतीय नागरिकों को मिलने वाली हर सुविधा जैसे सरकारी नौकरी किसी प्रकार का सरकारी लाइसेंस बैंक खाता स्कूल में एडिमिशन वजीफा राशन कार्ड ज़मीन खरीदने बेचने स्वास्थ्य का अधिकार पैन कार्ड आधार कार्ड मनरेगा कार्ड आयुष्मान कार्ड और हर सरकारी सुविधा से वंचित किया जाना चाहिये। अगर आयु 18 साल और स्थानीय निवास प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने का नियम नहीं होता तो दिल्ली और महाराष्ट्र में लाखों लोग स्थानीय जनप्रतिनिधियों के पते पर रहने का दावा करके बोगस मतदाता बनने का विपक्ष का आरोप नहीं झेल रहे होते? यही वजह है कि निवास स्थान बदलने पर वोट कटने का प्रावधान रहा है। अन्यथा दूसरा कारण किसी मतदाता की मृत्यु होने पर उसका नाम वोटर लिस्ट से निकाला जाता है। 
       इसके अलावा आज तक कोई तीसरा आधार मतदाता का नाम काटने का सामने नहीं आया है। कहीं ऐसा तो नहीं जिस एनआरसी को लाने में सकरार 2019 में सीएए लाकर फंस गयी थी और उसने विवाद से बचने को अपने कदम वापस खींच लिये थे, उसी एनआरसी को बैकडोर से चुनाव आयोग के द्वारा लाया जा रहा हो? वैसे भी किसी नागरिक का वोट कटना या बनना तो इतना बड़ा मुद्दा नहीं होता लकिन चुनाव आयोग अपने बूथ लेवल आॅफिसर से किसी की नागरिकता तय कराने लगे तो यह बड़ा मामला बन जाता है। चुनाव आयोग पर बार बार सरकार की कठपुतली बनने के विपक्ष आरोप लगाता आ रहा है लेकिन आयोग इस बारे में गंभीर नज़र नहीं आता कि उसको अपनी विश्वसनीयता साख और स्वायत्ता की कोई खास चिंता है। आयोग को चाहिये था कि वह सरकार से कहता कि वह गृह मंत्रालय से लोगों की नागरिकता की जांच कराये उसके बाद जो लोग पर्याप्त दस्तावेज़ पेश नहीं कर पायेंगे उनके सामने अपीलीय अधिकारी फोरेन ट्यूब्नल या कोर्ट जाने का अधिकार रहता है। जब अंतिम रूप से यह तय हो जाये कि कोई व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है तो उसका नाम चुनाव आयोग की सूची ही क्या सरकार की ओर से मिलने वाली हर प्रकार की सुविधा से काटा जा सकता है। 
       पासपोर्ट बनाने वाले नियम मतदाता सूची के लिये लागू करने का कोई औचित्य नहीं है। इस सारी कवायद के पीछे राजनीतिक मंशा तलाशी जा रही है। अब तक भाजपा का आरोप रहा है कि सेकुलर दल अपना वोटबैंक बनाने के लिये अवैध घुसपैठियों को मतदाता बनाकर उनके वोट से सत्ता हासिल करते रहे हैं। इसलिये उनको मतदाता सूची से हटाकर विपक्ष को सत्ता में आने से रोका जा सकता है। उधर विपक्ष का भाजपा पर आरोप है कि वह बहुसंख्यकों का धार्मिक तुष्टिकरण करके दलितों आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का नाम बड़ी संख्या में विभिन्न आधार पर सूची से काटकर अपनी जीत का रास्ता साफ करना चाहती है। सवाल यह है कि अगर यह राज्य की सरकारों ने जानबूझकर किया है तो बिहार में भाजपा की साझा नीतीश सरकार पिछले 20 साल से है। क्या वह इन घुसपैठियों के थोक वोट बनवाकर चुनाव जीतकर सत्ता सुख नहीं भोग रही है? क्या यह सब नीतीश को अगले चुनाव में ठिकाने लगाने का सोचा समझा प्लान है? यह भी हो सकता है कि भाजपा को लग रहा हो कि इस बार चुनाव में उसको बेरोज़गारों दलितों और आदिवासियों का पहले की तरह वोट नहीं मिलेगा तो उनको नागरिकता और स्थानीय निवास प्रमाण पत्र जांचने के बहाने पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये? जो अल्पसंख्यक भाजपा के खिलाफ अकसर खुलकर विपक्ष को वोट करते हैं उनके वोट भी बड़ी तादाद में काटकर विपक्ष को चोट दी जाये? 
        भारत सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-2 के अनुसार 40 से 60 साल की आयु के केवल 13 प्रतिशत लोगों ने हाईस्कूल की सनद और जन्म तिथि बताने वाली अंक तालिका हासिल की है। एनएफएसएच सर्वे-3 के अनुसार 2001 से 2005 तक जन्मे कुल बच्चो में से मात्र 2.8 प्रतिशत के पास ही जन्म प्रमाण पत्र हैं। एक बात यह समझ से बाहर है कि पिछली बार वोटर लिस्ट जांचने में दो साल लगे थे इस बार मात्र एक महीने में यह काम किसी इमरजैंसी के तहत पूरा करने का तुगलकी आदेश क्यों जारी किया गया है? बिहार में वोटर लिस्ट की बड़े पैमाने पर जांच 2003 में हुयी थी। 2003 की इस सूची में जिनका नाम है उनको नागरिकाता का कोई प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं होगी। एक जुलाई 1987 से पहले पैदा हुए लोग जन्मजात भारत के नागरिक माने जायेंगे लेकिन इसके लिये उनको अपना जन्म प्रमाण पत्र जिसमें जन्म की तिथि और स्थान हो, प्रस्तुत करना होगा। जो लोग 2 दिसंबर 2004 से पहले और एक जुलाई 1987 के बाद पैदा हुए उनको अपने माता पिता में से किसी एक का भारतीय नागरिक होना साबित करना होगा। तीसरी श्रेणी में वो लोग आयेंगे जो 2 दिसंबर 2004 के बाद पैदा हुए उनको अपने माता पिता दोनों का भारत का नागरिक होना प्रमाणित करना होगा। अन्यथा वे भारत के नागरिक नहीं माने जायेंगे।
नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीपफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 26 June 2025

ईरान ने ताकत दिखा दी...

*क्यों लड़ रहे थे इज़्राइल इरान,*
*क्या हासिल हुआ क्या नुक़सान?* 
0 इज़राइल ने 12 जून को इरान पर हमले की यह कहकर शुरूआत की थी कि वह परमाणु बम बना रहा है। उसने इरान के परमाणु केंद्रों पर हमले के साथ ही उसके कई सैनिक कमांडर और बड़े साइंटिस्ट की हत्या कर दी थी। पलटवार करते हुए इरान ने इज़राइल पर जब अपनी आध्ुानिक और मारक मिसाइलों की ताबड़तोड़ बौछार की तो इज़राइल उनको ना रोक पाने से बौखला गया। इसके बाद इज़राइल के बार बार मदद मांगने पर अमेरिका ने इरान के तीन परमाणु सेंटर फोरडो नतांज़ और इस्फाहान पर बी टू स्टील्थ बाॅम्बर से बंकर बस्टर बम गिराकर दावा किया कि उसका एटम बम बनाने का प्रोग्राम सदा के लिये ख़त्म कर दिया है। इरान ने बदला लेने को क़तर स्थित अमेरिका के सैन्य ठिकाने पर भी मिसाइल दाग दीं इसके बाद उसी रात इरान इज़राइल में जंग थम गयी।    
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      14 मई 1948 को इज़राइल फिलिस्तीन की धरती पर यहूदी शरणार्थियों के जर्मनी द्वारा नरसंहार के बाद आने पर यूरूपीय देशों द्वारा बनाया गया था। इज़राइल को सबसे पहले अमेरिका ने मान्यता दी थी। उसके बाद इज़राइल के विवादित विस्तारवाद फिलिस्तीनियों के उत्पीड़न निर्वासन और अन्याय के खिलाफ कई बार उसके आसपास के अरब देशों ने हमला किया लेकिन इज़राइल को अमेरिका का असीमित और बिना शर्त सपोर्ट मिलने से वह हर बार जीतकर आगे बढ़ता रहा। आज अधिकांश अरब देश अमेरिका के सैन्य अड्डे अपने यहां बनाकर और उससे सुरक्षा की गारंटी किराये पर लेकर इज़राइल के खिलाफ अपना मंुह बंद रखते हैं। लेकिन इज़राइल के जुल्म ज़्यादती और नाइंसाफी के खिलाफ फिलिस्तीनी लगातार लड़ते आ रहे हैं। अरब देशों से अलग राह पर चलकर इरान ने हमेशा फिलिस्तीन को हर तरह से सपोर्ट किया है। यह भी कहा जाता है कि हमास हिजबुल्लाह और हूथी जैसे कथित उग्रवादी संगठन भी इरान की सपोर्ट से ही इज़राइल पर आयेदिन छिटपुट हमले करते रहते हैं। लेकिन अमेरिका द्वारा इज़राइल को दिये गये अरबों डाॅलर आध्ुानिक हथियार और आइरन डोम जैसी दुश्मन की मिसाइलों को ज़मीन पर गिरकर नुकसान करने से पहले ही बीच में इंटरसेप्ट करके नाकाम कर देने वाली माॅडर्न तकनीक से उसका कोई भी देश संगठन या बम मिसाइल कुछ खास बिगाड़ नहीं सकी है। 
     फिलिस्तीन और उसके समर्थक संगठन जहां अपने मूल अधिकार दो राष्ट्र सिध्दांत और सह अस्तित्व लिये संघर्ष करते रहे हैं वहीं इरान इज़राइल का नाम ओ निशान इस धरती से मिटाने की क़समें खाता रहा है। लेकिन इरान को भी अब इज़राइल का वजूद स्वीकार कर लेना चाहिये। साथ ही स्थायी अमन के लिये इज़राइल को भी आज़ाद फिलिस्तीन स्वीकार करना होगा। अब तक इरान की इज़राइल से सीधी लड़ाई नहीं हुयी थी। लेकिन इस बार जब इज़राइल ने 12 जून को उस पर अचानक सीधे हमले कर उसको नुकसान पहंुचाया तो इरान ने पलटवार कर यह भ्रम तोड़ दिया कि इज़राइल अपराजय है। 12 दिन की जंग में इरान ने अपनी सीमा से 2500 किमी. दूर इज़राइल पर इतनी ज़बरदस्त मिसाइल बरसा दीं कि इज़राइल को अपना वजूद इरान के बिना एटम बनाये ही खतरे में नज़र आने लगा। उसने अपने आका अमेरिका से अपील कर इरान के तीन परमाणु केंद्रों पर हमले कराये लेकिन इरान उन केंदों को पहले ही खाली कर चुका था। इस दौरान चीन और रूस इरान के साथ खुलकर खड़े हो गये। रूस ने परमाणु बम बनाने वाले 200 वैज्ञानिक इरान को दे दिये। चीन ने इज़राइल के हमलों से बचाव की नई तकनीक और हथियार इरान को पर्दे के पीछे से देने शुरू कर दिये। 
      इससे इज़राइल और अमेरिका बौखला गये। उधर अमेरिका में जनता ने अफगानिस्तान और इराक की नाकामी को देखते हुए अमेरिका के जंग में शामिल होने का सड़कों पर खुलकर विरोध शुरू कर दिया। साथ ही जंग के लिये अमेरिकी कांग्रेस से सहमति ना लेने पर ट्रंप की सत्ता पर विपक्ष ने जोरदार हमले शुरू कर दिये। वहां का मीडिया भी ट्रंप की जंग में एंट्री के खिलाफ मुखर हो गया। उधर इज़राइल इरान की आधुनिक नवीनतम और सुपरसोनिक मिसाइलों के ताबड़तोड़ हमलों से इतना हलकान हो गया कि वह अमेरिका से गिड़गिड़ाने लगा कि किसी तरह से जंग रूकवा दीजिये। इरान जब इज़राइल पर जंग मंे भारी पड़ने लगा तो वह सीज़फायर के लिये तैयार नहीं हो रहा था। इस दौरान जब अमेरिका ने इरान के तीन परमाणु केंद्रों पर उसे बाकायदा सूचित कर दिखावे के लिये हमले किये तो इरान ने 60 से 90 प्रतिशत तक परिष्कृत परमाणु सामाग्री अपने 16 बड़े वाहनों में पहले ही लोड कर किसी सुरक्षित स्थान पर छिपा दी थी। किसी भी केंद्र पर रेडियेशन ना होने से हमले नाकाम साबित हो गये। 
       खुद अमेरिकी जांच एजेंसी ने ट्रंप के दावों की पोल खोलते हुए कहा कि उनको इरान के परमाणु केंद्र खत्म होने के अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं। इरान ने भी जंग रोकने के लिये शर्त रखी कि वह जब तक बदला लेने के लिये अमेरिका के सैन्य ठिकानों पर हमला नहीं कर लेगा तब तक जंग नहीं रोक सकता। इसके बाद क़तर स्थित अमेरिका के मिलैट्री बेस पर अमेरिका को इरान ने खबर करके हमला किया जिससे जान का नुकसान ना के बराबर हुआ। इसके बाद अमेरिका को अपनी धमकी के मुताबिक इरान पर और बड़े हमले करने चाहिये थे लेकिन वह अपनी नाक नीची करके उसी रात इरान इज़राइल को सीज़फायर के लिये राज़ी करने में कामयाब होेे गया। इस दौरान इरान ने इज़राइल को पहली बार इतिहास में अपनी मिसाइलों से इतनी ज़बरदस्त चोट और नुकसान पहुंचाया जिसकी इज़राइल ने आज तक कल्पना भी नहीं की थी। हालत इतनी खराब थी कि इज़राइल के लोग अपना देश तक छोड़कर भागने लगे थे। जो देश में थे वे दिन रात बंकर में अपनी जान की खैर मांग रहे थे। इज़राइल के पास जंग का साज़ ओ सामान गोला बारूद दूसरे हथियार और अरबों डाॅलर का नुकसान होने से आगे जंग जारी रखने को पैसा तक खत्म होने वाला था। उसको पहली बार इरान ने जंग का खौफ और मज़ा चखाया है जो वह निहत्थे और कमजोर फिलिस्तीनियों पर हमला करके अपना रौब झाड़ा करता था। 
        अब सवाल यह है कि इससे अमेरिका और इज़राइल को क्या मिला? जंग से पहले ये दोनों देश इरान में सरकार परिवर्तन परमाणु केंद्रों का सफाया उसके सबसे बड़े धार्मिक और सियासी रहनुमा खामनई की हत्या और इरान से बिना शर्त सरेंडर की मांग कर रहे थे लेकिन अब इरान ने इनके चारों मकसद पर पानी फेरकर खुद को इज़राइल से बेहद ताकतवर और परमाणु बम हर हाल में बनाने का एलान कर दिया है। सही भी है कि अगर दुनिया के पांच देशों अमेरिका चीन रूस ब्रिटेन फ्रांस के पास घोषित और भारत इज़राइल पाकिस्तान व उत्तरी कोरिया के पास अघोषित एटम बम मौजूद हैं तो इरान को परमाणु बम बनाने से रोकने का किसी को क्या नैतिक अधिकार है? अगर दुनिया ताकत की ही भाषा समझती है तो इस बार संयोग से इरान ने इज़राइल ही नहीं उसके आका अमेरिका को भी अपनी पाॅवर का एहसास कराकर अपना बम बनाने का इरादा साफ कर दिया है।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 12 June 2025

पाकिस्तान हल्कान

पाकिस्तान: अपने आतंक के बोझ से खुद होगा हलकान!
0 आॅप्रेशन सिंदूर के बाद से पाकिस्तान बौखलाया हुआ है। पहलगाम हमले का बदला लेने के लिये जब भारत ने उसके नौ आतंकी ठिकानों पर मिसाइल दाग़ीं तो तो वह उनमें से एक को भी इंटरसेप्ट कर नाकाम नहीं कर पाया। उसने अपना रक्षा बजट बेतहाशा बढ़ा दिया है। पाकिस्तान आज आर्थिक रूप से भारी संकट में है। सिंध ुजल समझौता टूटने से पाक में सूखा पड़ने के आसार अभी से दिखने लगे हैं। उसकी कुल खेती लायक ज़मीन में से 70 प्रतिशत पर 263 अमीर सामंत और नवाब रहे बड़े लोगों का कब्ज़ा है। आतंकवाद उसे अंदर ही अंदर खाता जा रहा है। पिछले साल आई भीषण बाढ़ से उसकी एक तिहाई खेती तबाह हो गयी। वहां निर्माण से अधिक आतंक पैदा हुआ है। पाक लगभग दिवालिया हो चुका है।                  -इक़बाल हिंदुस्तानी
     आॅप्रेशन सिंदूर से घबराये पाकिस्तान ने जब पलटवार करने को भारत पर मिसाइल हमला करना चाहा तो उसका एक भी वार कामयाब नहीं हुआ। इन सबको भारत ने नाकाम कर दिया। इससे यह साबित होता है कि पाकिस्तान भारत का सीधी जंग होने पर बराबर का मुकाबला नहीं है। इससे पहले भी पाकिस्तान हम से कई जंग हार चुका है। यही वजह है कि उसने आतंक के ज़रिये एक छिपा हुआ गोरिल्ला यानी छद्म वार का रास्ता चुना है। विश्व के सैन्य विशेषज्ञों का अनुमान है कि पाकिस्तान भारत के साथ सीधे युध्द में तीन से 7 दिन तक ही टिक सकता है। आॅप्रेशन सिंदूर के बाद तीन दिन बाद ही जिस तरह से पाकिस्तान ने भारत के सामने घुटने टेक दिये उससे दुनिया के रक्षा जानकारों का यह अंदाज़ सही साबित भी हो चुका है। इस मामले में पाकिस्तान की चार बड़ी समस्यायें सामने आ रही हैं जिसमें सैन्य, आर्थिक रण्नीतिक और भौगोलिक चुनौती उसके सामने खड़ी हैं। भारत के पास 15 लाख एक्टिव और 11 लाख 50 हज़ार रिज़र्व फौजी हैं जबकि पाकिस्तान के पास 6 लाख 50 हज़ार सक्रिय और 5 लाख सुरक्षित सैनिक हैं। जानकारों का कहना है कि भारत की सेना को लेकर कई लोगों को यह भ्रम रहता है कि उसकी सेना चीन बंगलादेश की सीमा और कश्मीर में विभाजित है जबकि पाकिस्तान की सेना खुद भी ब्लोचिस्तान और खैबर पख्तूनवा के साथ ही अफगानिस्तान और भारत की सीमा पर चार चार जगह बंटी हुयी है। 
    भारत के पास टैंक 4614 एयरक्राफट 2230 जबकि पाक के पास टैंक 3742 और एयरक्राफट केवल 425 ही हैं। युध्दपोत के हिसाब पाक भारत के सामने कहीं मुकाबले मंे टिक ही नहीं सकता क्योंकि हमारे पास जहां पूरा नौसैनिक बेड़ा है तो पाक के पास छोटा सा पोत है। जो हाथी और चींटी जैसा मुकाबला माना जा सकता है। मिसाइलों के मामले में भी पाकिस्तान भारत से हर मामले में उन्नीस ही साबित होगा। गोला बारूद पाक पूरी तरह से बाहर से आयात करने पर निर्भर है जिससे वह चार से सात दिन तक का ही कोटा रखता है जबकि भारत खुद भी गोला बारूद बनाता है जिससे वह इस मामले में भी पाक पर बहुत भारी पड़ने वाला है। भारत की जीडीपी पाक से दस गुना अधिक है। भारत का रक्षा बजट 83 बिलियन डाॅलर जबकि पाक का मात्र 7 से 8 बिलियन डालर था जो अब 9 बिलियन किया है। पाक में महंगाई की दर 23 प्रतिशत अभी है जो जंग जारी रहने पर वह कई गुना बढ़कर पाक का दिवाला निकाल देगी। जहां तक भौगोलिक और रण्नीतिक लड़ाई की बात है तो भारत की सेना मैदानी और पहाड़ी दोनों तरह के मोर्चो पर लड़ने के लिये प्रशिक्षित रही है जबकि पाक की सेना शुरू से ही रक्षात्मक होने की वजह से जंग चालू होने के कुछ समय बाद ही पीछे हटने पर मजबूर हो जाती है। 
       1971 की जंग मंे भारत ने पाकिस्तान के एकमात्र करांची पोर्ट की पूरी तरह नाकेबंदी कर दी थी। यह जंग केवल 13 दिन चली था। जबकि हमारे पास रसद तेल और दूसरे जंगी सामान पहंुचाने के कई वैकल्पिक रास्ते मौजूद रहे हैं जिनमें से एक भी पाक के बस का बंद करना नहीं है। इस कमज़ोरी को समझते हुए पाक ने इस बार तुर्की से एक युध्दपोत उधार ले लिया था लेकिन वह उसकी कोई खास मदद कर पाया हो ऐसी कोई ख़बर अब तक सामने नहीं आई है। पाक की सेना भारत से लड़ने को अगर घरेलू मोर्चे से हटती है तो उसके पाले हुए अफगानी आतंकी उसकी सत्ता पर हमला कर सत्ता पलट कर अंदरूनी मसला खड़ा कर सकते हैं। चीन का खुलकर समर्थन हासिल करने का पाक का दावा उसका माॅरल हाई कर सकता है यह किसी हद तक सच है। पाक का जंग में कमजोर पड़ने पर परमाणु हथियार का इस्तेमाल करने की धमकी देना एक तरह से ब्लैकमेल करना है जिसे दुनिया चुपचाप शायद ही देख सकती है। आईएमएफ यानी इंटरनेशनल मोनेट्री फंड ने उसको इस संकट से निकालने के लिये 7 अरब डालर का बेलआउट पैकेज दिया है लेकिन उसकी शर्तें इतनी मुश्किल जनविरोधी और सख़्त हैं कि पाक के सामने एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई वाली हालत है। रेटिंग एजेंसी मूडीज़ का कहना है कि पाक की कर्ज़ चुकाने की क्षमता आज दुनिया के किसी भी आज़ाद और संप्रभु देश के मुकाबले सबसे कमज़ोर है। उसके कर्ज़ का ब्याज भुगतान ही कुल आने वाले राजस्व का आधा है। 
      2017 का विदेशी कर्ज़ 66 से बढ़कर 100 बिलियन हो चुका है। डाॅलर की कीमत 267 रूपये हो चुकी है जिससे पाक का कर्ज़ बिना और लिये ही बढ़ता जा रहा है। विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 3.67 अरब डालर बचा है जोकि आगामी तीन सप्ताह के लिये ही हैै। उसकी सीमा पर विदेशी माल के ढेर लगे हैं। लेकिन उनकी कीमत चुकाने के लिये विदेशी मुद्रा ना होने से वह माल पाक मंे अंदर प्रवेश नहीं कर पा रहा है। आतंकवाद उग्रवाद चरमपंथ कट्टरपंथ करप्शन सेना का बार बार चुनी हुयी सरकार का तख़्ता पलट करना आर्थिक गैर बराबरी विदेश में काम करने वाले पाकिस्तानियों पर अर्थव्यवस्था का टिका होना आज़ादी के दशकों बाद तक अपना संविधान ना बना पाना लोकतंत्र मज़बूत ना होना सेना पर बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करना अमेरिका और खाड़ी के देशों से मिलने वाली बड़ी वित्तीय मदद का बड़ा हिस्सा तालिबान जैसे आतंकी संगठनों को पैदा कर पालना पोसना और भारत की तरह ज़मींदारी उन्मूलन ना कर देश में केवल बेहद गरीब और बेहद अमीर दो ही वर्ग आज तक बने रहना भी पाक की तबाही का कारण बना है। 
      ऐशियन लाइट की रिपोर्ट बताती है कि पाक ने जेहाद के नाम पर अमेरिका से मोटी रकम हथियार और राजनीतिक मदद लेकर पहले 1979 में रूस को अफगानिस्तान से निकालने कश्मीर को आज़ाद कराने के दावे को लेकर और बाद में 2001 में ओसामा बिन लादेन के 9 बटे 11 के हमले के बाद अलकायदा को ख़त्म करने को लेकर लोहे को लोहे से काटने के लिये अपनी सरज़मीं पर दहशतगर्द पैदा करने का कारखाना लगाया। अब जब ये अभियान खत्म हो चुका है तो पाक को अमेरिकी और अन्य मुल्कों की मदद मिलनी तो बंद हो ही गयी है। साथ ही उसने जिस तालिबान के जिन्न को बोतल से निकाला था। वह आज अफगानिस्तान में मिशन पूरा होने पर पाकिस्तान के गले का सांप बन गया है। कहावत सही है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से आये।
नोट- लेखक पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक व नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर हैं।

Thursday, 5 June 2025

चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था

चैथी बड़ी अर्थव्यवस्था होना नहीं,
प्रति व्यक्ति आय बढ़ना विकास है ?
0 नीति आयोग का दावा है कि देश दुनिया की चैथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। जबकि सच यह है कि आईएमएफ ने यह मात्र अनुमान लगाया है कि शायद भारत 2025 खत्म होने तक जापान को पीछे छोड़कर यह स्थान पा सकता है। उधर मोदी सरकार का कहना है कि वह देश को जल्दी ही विश्व की तीसरी बड़ी इकाॅनोमी बना देगी। लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश की जीडीपी उनके कार्यकाल में कांग्रेस की सरकार के मुकाबले आधी से भी कम स्पीड यानी 2014 से 2023 तक 84 प्रतिशत तो 2004 से 2014 तक दोगुने से भी अधिक यानी 183 प्रतिशत बढ़ी थी। जबकि दुनिया की तालिका में भारत प्रति व्यक्ति आय 2600 डाॅलर के हिसाब से देखा जाये तो हम 144 वें स्थान पर हैं।   
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
      इंटरनेशनल माॅनेटरी फंड के अधिकृत आंकड़ों के अनुसार दुनिया में जीडीपी के हिसाब से 2025 के अंत तक अमेरिका 30507.22 बिलियन डाॅलर से नंबर वन तो चीन 19231.71 बिलियन डाॅलर से दूसरे व जर्मनी 4744.80 बिलियन डाॅलर से तीसरे भारत 4187.02 बिलियन डाॅलर के साथ चैथे और 4186.43 बिलियन डाॅलर से जापान पांचवे स्थान पर पहुंच सकता है। 2014 से 2023 तक चीन की जीडीपी 84 तो अमेरिका की 54 प्रतिशत बढ़ी है। इनके अलावा दुनिया के टाॅप टेन देशों में से कई की जीडीपी या तो मामूली बढ़त के साथ स्थिर रही है या फिर मंदी के कारण वर्तमान से भी कुछ नीचे चली गयी है। अगर अप्रैल के आंकड़ों की बात करें तो अभी हम पांचवे स्थान पर ही हैं। मिसाल के तौर पर जिस ब्रिटेन को पहले हमने पांचवे पायेदान से पीछे छोड़ा था। उसकी जीडीपी बढ़त इस दौरान मात्र 3 तो फ्रांस की 2 और रूस की केवल एक प्रतिशत ही रही है। ऐसे ही जिस जापान को हम इस साल के अंत तक पीछे छोड़ने जा रहे हैं उसकी जीडीपी ग्रोथ मात्र 0.3 प्रतिशत है। इसके लिये यह भी ज़रूरी है कि देश में जंग के हालात न बनें, अमेरिका के लिये भारत का निर्यात बिना टैरिफ बढ़े पहले की तरह चलता रहे, हमारे यहां जीडीपी की रियल ग्रोथ मज़बूत बनी रहे और इस बढ़त में प्रोडक्शन का हिस्सा न केवल 15 प्रतिशत से नीचे न जाये बल्कि इससे आगे रहे।
      इनमें से एक भी चीज़ गड़बड़ होती है तो हम अपनी विकास दर वर्तमान स्तर पर भी बनाये रखने के लिये संघर्ष करने को मजबूर हो सकते हैं। उधर ब्राजील की जीडीपी उल्टा 15 प्रतिशत पीछे चली गयी है। इसकी वजह दुनिया में आई 2008-09 की मंदी भी बनी। हालांकि भारत भी इस मंदी से प्रभावित हुआ लेकिन उसका असर बहुत हल्का सा था। हालांकि पूर्व अनुमान के अनुसार भारत आशा के अनुसार 8 से 9 प्रतिशत की स्पीड से नहीं बढ़ रहा है लेकिन अगर हम 6 प्रतिशत की जीडीपी औसत बढ़त भी बनाये रख सके तो 2026 तक जर्मनी को पीछे छोड़कर विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकते हैं। इसकी वजह यह होगी कि हमारी इकाॅनोमी तब तक 38 तो जापान और जर्मनी की 15 प्रतिशत ही बढे़गी। 2004-09 में डीडीपी 8.5 प्रतिशत तो 2004 से 2014 तक औसत 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी। आज भारत की जीडीपी औसत 5.7 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। वह दौर एक तरह से मनमोहन सिंह सरकार का भारत में आार्थिक प्रगति का स्वर्ण काल था लेकिन अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की आड़ में मीडिया व संघ परिवार ने एक सोची समझी योजना के तहत तिल का ताड़ बनाकर उस सरकार को काल्पनिक टू जी घोटाले के बहाने इतना अधिक बदनाम कर दिया जितना उसका कसूर नहीं था। इन आंकड़ों की सहायता से हम यह समझ सकते हैं कि किसी देश की जीडीपी बढ़ने में उसकी सरकार आबादी और दूसरे देशों की मंदी कम स्पीड और प्रति व्यक्ति आय की क्या भूमिका होती है?
     हमारे देश में 35 करोड़ लोग पूरा पौष्टिक खाना नहीं खा पा रहे हैं। 80 करोड़ लोगों को सरकार 5 किलो अनाज देकर जीवन जीने में मदद कर रही है। देश की निचली 50 प्रतिशत आबादी सालाना आमदनी 50 हज़ार रूपये कमाकर भी कुल जीएसटी का 64 प्रतिशत चुका रही है। जबकि सबसे अमीर 10 प्रतिशत मात्र 3 प्रतिशत भागीदारी कर रहे हैं। इससे आमदनी ही नहीं खर्च और कर चुकाने के हिसाब से भी आर्थिक असमानता लगातार बढ़ती जा रही है। जबकि चोटी के एक प्रतिशत की वार्षिक आय 42 लाख है। जीएसटी हर साल हर माह पहले से अधिक बढ़ने का दावा भी सरकार अपनी उपलब्धि के तौर पर करती है जबकि जानकार बताते हैं कि इसका बड़ा कारण तेज़ी से बढ़ती बेतहाशा महंगाई भी है। महंगाई बढ़ाने में खुद सरकार पेट्रोलियम पदार्थों रसोई गैस और चुनचुनकर उपभोक्ता पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाना या कर की दरें लगातार बढ़ाते जाना भी हैै। जीडीपी प्रोडक्शन का पैमाना माना जाता है। लेकिन यह उपभोग का माप भी है। जब आप कन्ज्यूमर की एक विशाल गिनती लेकर उसे एक मामूली राशि से गुणा करेंगे तो एक बहुत बड़ी संख्या आती है। अगर क्रय मूल्य समता यानी पीपीपी के आधार पर देखा जाये तो हमारी यह 2100 अमेरिकी डाॅलर है। जबकि यूके की 49,200 डाॅलर और अमेरिका की 70,000 डाॅलर है।
        अगर देश के लोग गरीब हैं तो दुनिया में जीडीपी पांचवे तीसरे नंबर पर ही नहीं नंबर एक हो जाने पर भी क्या हासिल होगा? यह एक तरह से भोली सीधी सादी जनता को गुमराह करने का एक चुनावी राजनीतिक झांसा ही अधिक है। सच तो यह है कि मोदी सरकार की नोटबंदी देशबंदी और जीएसटी बिना विशेषज्ञों की सलाह लिये और बिना सोचे समझे और जल्दबाज़ी में लागू करने से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहंुचा है जिससे यह वर्तमान में जहां खुद पहंुचने वाली थी उससे भी पीछे रह गयी है। इसका परिणाम तेज़ी से बढ़ती बेरोज़गारी और महंगाई है। इसके साथ ही यह भी एक बड़ा विचारणीय तथ्य है कि जिस देश में शांति भाईचारा समानता निष्पक्षता धर्मनिर्पेक्षता न्याय नहीं होगा वहां शांति नहीं रह सकती और जब शांति नहीं होगी तो ना विदेशी निवेश आयेगा और ना ही स्थानीय स्वदेशी कारोबार से अर्थव्यवस्था ठीक से फले फूलेगी। इस बार अब तक विदेशी निवेश में भारी कमी की ख़बरें आ रही हैं। कहने का मतलब यह है कि जब तक प्रति व्यक्ति आय नहीं बढ़ती है तब तक लोगों को निशुल्क शिक्षा, बेहतर इलाज, शानदार सड़कें और 24 घंटे बिजली पानी जैसी बुनियादी सुविधायें उपलब्ध कराना एक सपना ही बना रहेगा। पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद गर्ग ने भी यही दोहराया है कि अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ना अच्छी बात है लेकिन विकसित राष्ट्र बनने के लिये प्रति व्यक्ति आय बढ़ना ज़रूरी है जिसमें हम अभी काफी पीछे हैं। अदम गोंडवी का एक शेर याद आ रहा है- तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है।         नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।

Thursday, 22 May 2025

संविधान सर्वोच्च है

सही है चीफ़ जस्टिस का बयान,
सर्वोच्च है भारत का संविधान!
0 सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी आर गवई ने बिल्कुल सही कहा है कि लोकतंत्र में विधायिका न्यायपालिका और कार्यपालिका तीनों स्तंभ समान हैं, उनको एक दूसरे का सम्मान करना चाहिये। उनका कहना है कि अगर कोई सर्वोच्च है तो वह संविधान है। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से तमिलनाडू के मामले में वहां के राज्यपाल और देश के राष्ट्रपति को तीन माह के भीतर विधानसभा से पास विधेयकों को पास करने या वापस लौटाने का आदेश दिया उस पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने जिन शब्दों में एतराज़ जताया है उससे यह बहस छिड़ गयी है कि संसद बड़ी है या सुप्रीम कोर्ट अथवा राष्ट्रपति? जबकि सच यह है कि संविधान सबसे बड़ा है।   
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों पर पांच पन्ने का संदर्भ मांगा है। प्रेसिडंेट ने यह संदर्भ संविधान में उनको दिये गये अनुच्छेद 143 के तहत अधिकार का प्रयोग करते हुए यह जानना चाहा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट संविधान में व्यवस्था नहीं होने के बावजूद उनको समय सीमा के अंदर बिल पास करने के लिये कह सकता है? दो जजों की बैंच ने जब यह निर्णय दिया था जानकार लोगों ने तभी अनुमान लगाया था कि केंद्र सरकार इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका लगा सकती है। इसके बाद अनुमान है कि यह मामला संविधान पीठ के सामने विचार के लिये जा सकता है। आपको याद दिला दें कि तमिलनाडू सरकार के कुछ बिलों को वहां के गवर्नर द्वारा कई साल तक रोकने और उसके बाद वापस करने पर उनको वहां की सरकार द्वारा दोबारा पास करके भेजने के बाद उन बिलों को विचार के लिये गवर्नर द्वारा प्रेसीडेंट के पास भेज देने और वहां एक बार फिर से वे बिल ठंडे बस्ते में असीमित समय के लिये रूक जाने से नाराज़ होकर सबसे बड़ी अदालत ने अपने विशेष संवैधानिक अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए उन दस बिलों को बिना राष्ट्रपति की सहमति के ही पास मानकर कानून का दर्जा दे दिया था। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने भविष्य में ऐसे विवाद रोकने के लिये राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिये ऐसे बिलों को पास करने या वापस करने के लिये एक से तीन माह का समय तय कर दिया था।
     अब राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सवाल उठाते हुए उससे संदर्भ मांगा है कि क्या वह संविधान में ऐसी कोई समय सीमा न होने के बाद भी उनको निर्धारित समय में ऐसे मामलों में निर्णय लेने के लिये आदेश दे सकता है? साथ ही राष्ट्रपति ने इस बात पर भी एतराज़ किया है कि सुप्रीम कोर्ट को उनके विवेक पर सवाल उठाने का अधिकार कहां से मिला है? 2014 के बाद से यह देखा गया है कि केंद्र सरकार के निर्देशों पर काम करने वाले राज्यपाल विपक्षी सरकारों को तरह तरह से पहले की केंद्र सरकारों के मुकाबले कुछ अधिक ही परेशान करते रहे हैं। हालांकि हाल ही में विरोधी दलों की राज्य सरकारों को असंवैधानिक रूप से गिराने की तिगड़मों में कुछ कमी आई है। इस मामले में कांग्रेस की केंद्र सरकार का रिकाॅर्ड अधिक खराब रहा है। जहां तक राज्यों की चुनी हुयी सरकारों का सवाल है उनको राष्ट्रपति और राज्यपाल से अधिक संवैधानिक शक्तियां मिली हुयी हैं। सही मायने में राष्ट्रपति और राज्यपाल तो केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर काम करते हैं। इसी लिये यह नियम बनाया गया था कि अगर केंद्र या राज्य की कोई सरकार किसी विधेयक को बिना पास किये विचार के लिये लौटाने पर दोबारा पास करके भेजती है तो राष्ट्रपति और राज्यपाल को उन पर हस्ताक्षर करने ही होंगे। ऐसा न करने पर उनको अपना पद छोड़ होगा।
       इसका मतलब यह है कि उनको किसी भी बिल को पास करने से रोकने की संवैधानिक पाॅवर हासिल नहीं है। लेकिन संविधान में ऐसा करने के लिये कोई समय सीमा न होने से वे इसका इस्तेमाल बिलों को अनिश्चित समय तक रोके रखने के लिये करते रहे हैं। सच तो यह है कि ऐसा वे खुद नहीं बल्कि केंद्र सरकार के इशारे पर करते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में ऐसी समय सीमा नहीं होने के कारण गलत इस्तेमाल की जा रही इस शक्ति पर रोक लगाकर कुछ भी गलत नहीं किया है लेकिन हां यह संविधान में नहीं लिखा है यह बात सच है। लेकिन शायद संविधान निर्माता यह कल्पना नहीं कर पाये कि किसी दिन देश में ऐसी सरकार भी आ सकती है जो विपक्षी सरकारों को परेशान करने के लिये राज्यपालों के सहारे चुनी हुयी सरकारों को कानून बनाने से ही रोक दे? इसके साथ ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के लिये अनुच्छेद 142 परमाणु मिसाइल बन गया है, वह सुपर संसद की तरह पेश आ रहा है और उसको सबसे बड़े पद पर बैठे यानी राष्ट्रपति को आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। इसके बाद बड़बोले भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा ने भी दुस्साहस दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट और उसके चीफ जस्टिस पर अमर्यादित टिप्पणी की।
       सुप्रीम कोर्ट अपने पहले के फैसले में एक बार यह कह चुका है कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं, उनको भी संविधान के अनुसार चलना होता है। दि हिंदू अख़बार के संपादक एन राम ने धनकड़ को सटीक जवाब देते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट जब राष्ट्रपति को कोई निर्देश जारी करता है तो वह वास्तव में संघीय मंत्रिपरिषद को निर्देश दे रहा होता है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडू राज्य बनाम तमिलनाडू राज्यपाल मामले में अपने अपै्रल 2025 के फैसले में संघीय मंत्रिपरिषद को संविधान के अनुसार कार्य करने का निर्देश दिया है। ऐसा इसलिये किया गया है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री करते हैं। सवाल यह है कि तमिलनाडू सरकार ने कई साल पहले दस कानून बनाये थे। जब उन कानूनों को पास करने के लिये गवर्नर के पास भेजा गया तो वे कई साल तक उनको दबाकर बैठ गये। उसके बाद जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो अदालत ने गवर्नर से उन कानूनों को पास करने या फिर से विचार करने को वापस राज्य सरकार के पास भेजने को कहा। लेकिन जब बात नहीं बनी तो राज्यपाल ने उन कानूनों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया। सरकार के कुल कार्यकाल पांच साल में अगर तीन साल कानून राज्यपाल के यहां अटके रहेंगे और इसके बाद जानबूझकर देर करने सरकार को बदनाम करने या उसको काम न करने देने के इरादे से वही कानून राष्ट्रपति के पास भेज दिये जायेंगे। जहां वे राज्यपाल के आॅफिस की तरह ठंडे बस्ते में पड़े रहेंगे तो निर्वाचित सरकार का क्या मतलब रह जाता है? केंद्र सरकार के संविधान विरोधी इलैक्टोरल बांड जैसे कानून पहले भी सुप्रीम कोर्ट में निरस्त होते रहे हैं। लगता है वक्फ़ कानून का भी यही हश्र होने जा रहा है।
 0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।

Thursday, 15 May 2025

सेना का सम्मान

देशभक्तों सेना का सम्मान कीजिये, 
सभी भारतीयों को साथ लीजिये!
0 आॅप्रेशन सिंदूर हमारी सेना का पाकिस्तान को पहलगाम हमले का करारा जवाब है। हर भारतीय को सेना के इस साहस पर गर्व है। पूरा देश इस नाजुक और एतिहासिक अवसर पर सेना के साथ खड़ा है। सरकार ने सेना को इस आॅप्रेशन के लिये खुली छूट दी थी। इसके लिये विपक्ष ने सरकार का पूरा साथ दिया है। हर भारतीय पाक को सबक सिखाने के लिये देश के लिये हर तरह की कुरबानी देने को तैयार है। लेकिन दुख की बात है कि जिनका एजेंडा हिंदू मुस्लिम है उनमें से चंद लोग अभी भी कर्नल सोफिया कुरैशी को मुसलमान होने की वजह से टारगेट कर रहे हैं। इतना ही नहीं वे विदेश सचिव विक्रम मिस्री को भी पाक के साथ सीज़ फ़ायर का ऐलान करने से ट्राॅल करने लगते हैं। उनके परिवार तक पर कीचड़ उछाला जाता है जिससे तंग आकर वे अपना सोशल मीडिया एकाउंट लाॅक करने को मजबूर होते हैं। यह बहुत निंदनीय और दुखद सोच है। सही मायने में ऐसे लोगों पर देशद्रोह का केस चलाया जाना चाहिये।  
-इक़बाल हिंदुस्तानी
     सेना सेना होती है। उसका कोई निजी धर्म नहीं होता। उसका मकसद सदा देश और जनता की सेवा होता है। सेना से बड़ा देशभक्त कोई दूसरा नहीं साबित कर सकता। सेना अपना सब कुछ दांव पर लगाकर सीमा की निगहबानी करती है। वो देश की बिना शर्त रक्षा करती है। सैनिक अपनी जान की परवाह किये बिना विषम हालात में भूख प्यासा आंधी तूफान के बीच भी दिन रात देश की आन बान शान के लिये आखि़री सांस तक लड़ता है। लेकिन जब कोई दो कौड़ी का नेता आॅप्रेशन सिंदूर को अपने नेतृत्व में अंजाम तक पहंुचाने वाली कर्नल सोफिया कुरैशी जैसी जांबाज़ फौजी को उनके धर्म की वजह से पाक के आतंकियों की बहन बताकर अपमान करता है तो वह हमलावरों के देशवासियों को बांटने के एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहा होता है। वह तो अच्छा हुआ एमपी के हाईकोर्ट ने इस मामले का खुद संज्ञान लिया और आरोपी के खिलाफ रपट दर्ज करने का आदेश दे दिया। लेकिन अफसोस यह रहा कि खुद को सबसे बड़ा देशभक्त बताने वाली पार्टी के मुखिया उनके पितामाह सांस्कृतिक संगठन पीएम सीएम और अन्य बड़े बड़े पदों पर बैठे नेताओं ने उस मुंहफट मंत्री से इस्तीफा तक नहीं लिया। अलबत्ता पार्टी ने जब उनके बयान से खुद को अलग किया तो उसने मजबूरन दिखावे की माफी ज़रूर मांग ली। ऐसे ही विदेश सचिव विक्रम मिस्री का मामला है। उनको सरकार के आदेश का पालन करना होता है। उन्होंने जब मीडिया में पाक के साथ सीज़ फायर का ऐलान किया तो ट्राॅल आर्मी उनके पीछे पड़ गयी।
      14 नवंबर 2015 को लंदन के वेम्बली स्टेडियम में भारतीय प्रवासियों की एक सभा में पीएम नरेंद्र मोदी ने सेल्फी विद डाॅटर अभियान की अपील करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय आंदोलन बताया था। जानी मानी काॅरपोरेट लाॅयर डिडोन के पिता विक्रम मिस्री ने अपनी बेटी के साथ एक सेल्पफी सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दी थी। दस साल बाद इस सेल्फी को ट्राॅल आर्मी ने तलाश कर निकाला और डिडोन के अश्लील मीम बनाकर उनके पिता विदेश सचिव विक्रम मिस्री के ट्विटर हैंडल पर भद्दे चित्रों और कमेंट की बाढ़ ला दी। मिस्री का कसूर यह था कि उन्होंने भारत सरकार के निर्देशानुसार पाक के साथ जंगबंदी की घोषणा की थी। अंधभक्त चाहते थे कि जंग जारी रहे और गोदी मीडिया के झूठे दुष्प्रचार के हिसाब से इस बार पाकिस्तान को पूरी तरह निबटा दिया जाये। उनको यह नहीं पता कि न तो कोई विदेश सचिव जंग की शुरूआत करता है और न ही जंग रोकने का फैसला उसके हाथ में होता है। इससे पहले पहलगाम हमले में अपने फौजी पति को खो बैठी हिमांशी नरवाल को उनकी इस पोस्ट पर निशाने पर लिया गया था कि वे चाहती हैं कि पाक हमलावरों को कड़ी सज़ा मिले लेकिन इसके लिये कश्मीरी और भारतीय मुसलमानों को आरोपी न माना जाये। ऐसे ही नैनीताल में एक लड़की के साथ रेप होने पर जब आरोपी के दूसरे धर्म का होने की वजह से उस धर्म के लोगों को हिंसा का शिकार बनाया गया तो शैला नेगी ने इस अन्याय का विरोध किया तो ट्राॅल आर्मी ने कायदे की बात करने वाली इस बहादुर और समझदार लेडी को ही डराना धमकाना और अपमानित करना शुरू कर दिया था।
       इतना ही नहीं देश के वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने पिछले दिनों सरकार से उसकी नाकामी और गैर ज़िम्मेदारी पर कुछ तीखे सवाल पूछे तो उनकी डीपी पर लगी उनकी बेटी की फोटो लेकर सोशल मीडिया पर अश्लील कमेंट किये जाने लगे। इससे दुखी और नाराज़ होकर कभी संघ के समर्थक रहे राहुल देव ने अपनी डीपी से अपनी बेटी की तस्वीर हटा दी। अब वे खुद भी सोशल मीडिया पर इस मानसिक आघात से बहुत कम पोस्ट कर रहे हैं। इससे पहले सरकार के खिलापफ कुछ कड़े फैसले देने पर कोर्ट के खिलाफ भी ऐसे ही ट्राॅल ने बहुत अभद्र और आक्रामक भाषा का प्रयोग किया था। इस तरह के पीड़ित लोगों की लिस्ट काफी लंबी है। धर्म और साम्प्रदायिकता की नफ़रत भरी झूठी राजनीति करने वालों के संरक्षण के कारण ऐसे ट्राॅल अब निडर होकर किसी पर भी टूट पड़ते हैं। इनका विश्वास न तो संविधान में है और न ही ये लोकतंत्र का सम्मान करते हैं। यही वजह है कि ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता को भी कुछ नहीं समझते हैं। ज़ाहिर बात है कि ऐसे लंपटों के लिये किसी भी मामले में असहमति या विरोध के लिये भी कोई जगह नहीं है। हम शुरू से ही कहते आ रहे हैं कि अगर किसी वर्ग जाति या धर्म के लोगों के लिये कोई कानून हाथ में लेगा उनको बात बात पर निशाने पर लेगा या हिंसक और अश्लील तरीके से पेश आयेगा और सरकारें उस पर जानबूझकर चुप्पी साधेंगी तो यह आग एक दिन उनके घर को भी जलायेगी जो दूसरों को नुकसान पहुंचाकर आज बहुत खुश हो रहे हैं। अभी भी समय है कि अगर आप सच्चे देशभक्त हैं तो सेना का सम्मान कीजिये और सभी भारतीयों को साथ लीजिये। मजाज़ का एक शेर याद आ रहा है- बख़्शी हैं हमको इश्क ने वो जुर्रत ए मजाज़, डरते नहीं सियासत ए अहले जहां से हम।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं।