0 वरिष्ठ पत्रकार चिंतक और ललित निबंध लेखक स्व. बाबूसिंह चैहान जब तक जीवित रहे अपनी लेखनी बिना यह देखे निष्पक्षता स्पश्टता और मानवता के पक्ष में चलाते रहे कि उनके सच लिखने से किस वर्ग के कट्टरपंथी नाराज़ हो जायेंगे। बाबूजी तो यहां तक कहा करते थे कि अगर उनके लिखने बोलने और कार्य करने से संप्रदायवादी जातिवादी और फासिस्ट तत्व खफ़ा होते हैं तो समझ जाना चााहिये कि वे अपने मिशन पर सही जा रहे हैं। उनका कहना था कि जिस दिन यथास्थितिवादी और अंधवश्विासी लोग आपकी सराहना करने लगे समझ लीजिये आप अपने सत्य तथ्य और प्रमाण्किता के रास्ते से भटक चुके हैं। यही वजह है कि ऐसा माना जाता है कि चैहान साहब आज होते तो कट्टरपंथियों के निशाने पर होते। *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
कहने को देश में लोकतंत्र है। चुनाव भी हो रहे हैं। मीडिया है। न्यायपालिका है। संविधान है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। अखबार छप रहे हैं। टीवी चैनल चल रहे हैं। लेकिन सच इन सबमें गुम सा हो गया है। चैहान साहब आज जीवित होते तो इन मूल्यों लक्ष्यों और उसूलों के लिये लड़ रहे होते। हालांकि उनकी सोच के चंद लोग अपवाद स्वरूप आज भी पूरी तरह पंूजीवाद लाभ और स्वार्थ को लात मारकर न्याय समाजवाद और सौहार्द की लड़ाई लड़ रहे हैं। बिजनौर टाइम्स और चिंगारी जैसे उनके लगाये पौधे भी वटवृक्ष बन गये हैं। उनके सुपुत्र श्री चंद्रमणि रघुवंशी और श्री सूर्यमाणि रघुवंशी भी उनकी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं। बि.टा. ग्रुप से जुड़े आॅफिस फील्ड के पत्रकार समाचार पत्र वितरक हाॅकर विज्ञापनदाता लेखक कवि और सबसे बढ़कर पाठकों का एक बड़ा वर्ग इन विषम परिस्थितियों में भी मिशनरी पत्रकारिता के साथ खड़ा है। यह इस बात का प्रमाण है कि झूठ की आंधी चाहे जितनी भी प्रचंड हो लेकिन वह सच के दिये को बुझा नहीं सकती। आज का दौर ऐसा दौर है। जिसमें सत्ता में ऐसे लोग हावी हैं। जिनका विश्वास संविधान लोकतंत्र और समानता में नहीं है। उनका काॅरपोरेट के साथ एक काॅकटेल बन गया है। उन्होंने मीडिया के साथ ही पुलिस और प्रशासन न्यायपालिका और जांच एजंसियों सहित लगभग सभी सरकारी संस्थानों को बंधक बना लिया है।
वे विपक्ष या असहमति के आवाज़ को दुश्मन मानते हैं। ऐसे में अधिकांश पिं्रट और इलैक्ट्राॅनिक मीडिया ने उनके सामने घुटने टेक दिये हैं। इसका समीकरण बहुत सीधा है। पहले दूरदर्शन और आकाशवाणी को सरकार का भोंपू माना जाता था। जब ये दोनों सरकार का राग दरबारी छेड़ते थे तो किसी को बहुत हैरत भी नहीं होती थी। यही वजह है कि आज के दौर में इनकी विश्वसनीयता रसातल में जा चुकी है। लेकिन जब उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो लोगों को लगा था कि अब सरकारी मीडिया की मनमानी पर लगाम लगेगी। शुरू में कुछ दिन यह आशा फलीभूत होती भी नज़र आई लेकिन फिर एक दिन ऐसा आया जब सत्ता और पूंजीपतियों ने हाथ मिला लिया। ऐसे में सत्ता पूंजीपतियों को कानून ताक पर रखकर लाभ देने लगी और बदले में पूंजीपतियों ने न केवल अपनी तिजोरी का मंुह खोल दिया बल्कि सत्ता की चाकरी में अपने अखबार और चैनलों को पूरी तरह से सरकार के कदमों में बिछा दिया। इसी का अंजाम यह हुआ कि निजी मीडिया झूठा नफरती और फर्जी आंकड़ों का रोबोट बन गया है। आज पूरी बेशर्मी बेहयाई और निर्लजता से गोदी मीडिया सरकार की गोद में बैठा है। ऐसे में बाबूजी याद आते हैं। उनको आप किसी तरह के लालच और डर से अपने मकसद से डिगा नहीं सकते थे। वे होते तो सच लिखते। बड़े बड़े अखबारों और टीवी चैनलों की पोल खोल देते। उनके इस अभियान से सरकार नाराज़ होती। सांप्रदायिक और फासिस्ट शक्तियां उनको निशाने पर लेती लेकिन वे हार मानने वाले नहीं थे।
हालांकि उनके दिखाये रास्ते पर ही आज बिजनौर टाइम्स और चिंगारी चल रहे हैं। इन दोनों अखबारों को भी अपने उसूलों सच और न्याय का साथ देने की कीमत चुकानी पड़ रही है। मुझे याद आ रहा है कि एक बार चैहान साहब ने भुखमरी के दौर में एक आदमी के रोटी चुराने के मामले को लेकर एक खबर छाप दी थी कि भूखा मानव क्या करेगा? इस पर तत्कालीन अधिकारी उनसे खफा हो गये थे। उनका आरोप था कि चैहान साहब जनता को अनाज चोरी और लूट के लिये भड़का रहे हैं। लेकिन चैहान साहब तो एक ज़िम्मेदार संवेदनशील और मानवतावादी पत्रकार का अपना कर्तव्य पूरा कर रहे थे। ऐसा ही शायद उनके जीते आज होता जब वे अन्याय अत्याचार और पक्षपात के खिलाफ खुलकर लिखते बोलते तो शासन प्रशासन के निशाने पर आने के साथ ही उस कट्टर सोच के लोगों की आंख की किरकिरी बन जाते जो सबको अपने हिसाब से हांकना चाहते है। वे बुल्डोज़र के विध्वंस के खिलाफ बहुत तीखा लिखते। वे माॅब लिंचिंग को लेकर सवाल खड़ा करते। वे चुनाव आयोग के पक्षपात पर चुप नहीं रहते और ईडी व सीबीआई के गलत इस्तेमाल पर जमकर आवाज़ उठाते चाहे इसके लिये उनको विपक्षी दलों का साथ देने वाला ही क्यों कहा जाता। वे न्यायपालिका के स्लैक्टिव निर्णयों पर भी कलम चलाने से खुद को नहीं रोक पाते चाहे इसकी कीमत उनको कोर्ट की मानहानि का मुकदमा झेलकर ही क्यों चुकानी पड़ती। वे अडानी अंबानी जैसे चंद पूंजीपतियों को सारे संसाधन बैंक लोन और देश की नवरत्न कंपनियां औने पौने दामों में सौंप दिये जाने का भी मुखर विरोध करते चाहे इसके लिये उनको उनके अंदर का कम्युनिस्ट एक बार फिर जाग जाने का उलाहना ही क्यों ना दिया जाता।
वे कई वरिष्ठ वकीलों लेखकों मानवाधिकारवादियों और स्वतंत्र सेवा करने वालों को झूठे आरोप लगाकर जेल भेजने और सालों तक बंद रखने का हर हाल में विरोध करते चाहे इसके लिये उनको अरबन नक्सल का समर्थक ही क्यों ना बताया जाता। वे बारी बारी से सबके निशाने पर आते लेकिन उच्च जातियों के गरीबों पिछड़ों वर्ग के कमजोरों दलितों के पीड़ितों और अल्पसंख्कों के साथ होने वाले पक्षपात पर लगातार कलम चलाते रहते चाहे इसके लिये उनको सरकार के कोपभाजन का शिकार ही क्यों होना पड़ता। खास बात यह थी कि वे केवल कलम ही नहीं चलाते थे बल्कि आवश्यकता पड़ने पर सड़क पर उतरकर आंदोलन करना और जेल भरो अभियान चलाना भी उनको आता था। आज वे होते तो यह कदम उठाने से भी नहीं हिचकते। बिजनौर ज़िले की शान मिशनरी पत्रकारिता के जनक और लेखक व चिंतक श्री बाबूसिंह चैहान का नाम आज यूपी ही नहीं पूरे देश में मान सम्मान कलम के ज़रिये समाजसेवा समाज सुधार और युग परिवर्तक के पहचाना जाता है। उनके सहित्य की चर्चा करें तो गिनाने के लिये बहुत लंबी सूची है। कहने का मतलब यह है कि चैहान साहब कोई साधारण पत्रकार लेखक या काॅमरेड नहीं थे। वे अगर आज होते तो उनको यह माहौल घुटनभरा लगता जिसमें पत्रकारिता मिशनरी से व्यवसायिक ही नहीं पूरी बेशर्मी और निर्लजता से चाटुकारिता नफ़रत और समाज को बांटने के काम में लगी है। उनको यह सब किसी कीमत पर सहन नहीं होता और वे इस पतन बेहयायी और समाज विरोधी पत्रकारिता का जमकर विरोध करते। चैहान साहब के लिये गोदी मीडिया का यह दौर असहनीय इसलिये भी होता क्योंकि वे जब जब टीवी चैनल और सरकार के गुलाम बन चुके अधिकांश हिंदी व क्षेत्रीय समाचार पत्र देखते पढ़ते तो उनको ऐसा लगता मानो आज भारत मंे सच लिखना बोलना और उस पर चर्चा करना अपराध बन गया है। जब हम उनके मार्गदर्शन में चिंगारी बि.टा. के संपादन में सहयोगी के तौर पर डेस्क पर काम करते थे तो कभी कभी वे अपने पुराने अनुभव साझा किया करते थे। कहते थे अगर वे चाहें भी तो भी किसी तानाशाह के पक्ष में नहीं लिख सकते। हालांकि उस दौरान भी अख़बार में वे आपातकाल के खिलाफ लिखने से बाज़ नहीं आये।
0 मैं चुप रहा तो मुझे मार देगा मेरा ज़मीर,
गवाही दी तो अदालत में मारा जाउूंगा।।
*0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के संपादक हैं।*