Tuesday, 4 November 2025

बाहुबली में खलबली

*अच्छे बाहुबली? बुरे बाहुबली?* 
*माफियाओं को लेकर खलबली!*
0 कभी अफ़गानिस्तान के तालिबान यानी कट्टरपंथियों को लेकर पूरी दुनिया में बहस चली थी कि उग्रवादी अच्छे और बुरे भी होते हैं। जब तक वे अमेरिका के खिलाफ लड़ते रहे उनको आतंकवादी बताया जाता रहा लेकिन अब जब वे अफगानिस्तान की सत्ता में आ गये हैं तो अच्छे और भले हो गये। ऐसे ही बिहार में चुनाव के दौरान जंगल राज की बार बार चर्चा होती है। इसके लिये बाहुबलियों को टिकट देने चुनाव जीतने पर सत्ता का संरक्षण देने और विपक्ष में होकर भी उनको बचाने के आरोप सभी दलों पर लगते रहे हैं। अजीब बात यह है कि सत्ताधरी जदयू के बाहुबलि अनंत सिंह ने मोकामा सीट से सुराज पार्टी के बाहुबलि दुलारचंद यादव की हत्या कर दी लेकिन जंगलराज का आरोप राजद पर है।   
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     इस लेख के छपने तक बिहार में पहले चरण का चुनाव हो चुका होगा। लेकिन जिन बाहुबलियों को लेकर राजनीतिक दलों में भीषण घमासान छिड़ा है, वह शायद दूसरे और अंतिम चरण तक नहीं बल्कि चुनाव परिणाम आने के बाद भी चालू रहेगा। इस मामले में हालांकि सभी दलों का रिकाॅर्ड कमोबेश दागदार है लेकिन जब जंगलराज की बात चलती है तो राजद को लालूराज के लिये घेरा जाता है। हम इस लेख में एक गंभीर मुद्दे पर चर्चा करेंगे कि आखि़र बाहुबलि इतने ही बुरे होते हैं तो सभी दल उनको चुनाव में टिकट और संरक्षण क्यों देते हैं? दूसरा अहम सवाल है यह है कि अगर सियासी दल सत्ता के लोभ में इन माफियाओं को टिकट दे भी देते हैं तो जनता इनको क्यों नहीं हरा देती?
     तीसरा और अंतिम सवाल यह है कि जब सभी दल समय समय पर अलग अलग अपराधियों हिस्ट्रीशीटर्स और कुख्यात माफियाओं को संरक्षण और टिकट देते ही हैं तो वे किस मुंह से दूसरे दलों को बाहुबलियों को पालने पोसने का ज़िम्मेदार ठहराते हैं? क्या सत्ताधरी दल के बाहुबलि अच्छे और विपक्ष के बाहुबलि बुरे होते हैं? बिहार की तो बात ही क्या यूपी तक जहां छोटे छोटे अपराधिक मामलों में भी आरोपियों के पैर में गोली मारकर उनके घरों पर बुल्डोज़र तक चला दिया जाता है और कई कई केस वाले कम चर्चित अपराधी भी फर्जी मुठभेड़ में मार गिराये जाते हैं, वहां भी बड़े अपराधियों घोषित माफियाओं और कई जाति के सिरमौर बनेे बाहुबलियों को सत्ता का और विपक्ष का संरक्षण अकसर मिलता रहा है। सोशल मीडिया में जबरदस्त फजीहत के बाद अनंत सिंह को पकड़ा गया है। यह शर्म की बात है कि न तो सरकार न ही चुनाव आयोग और न ही छोटी छोटी बातों पर सूमोटो लेने वाले कोर्ट ने इस हत्या पर कोई गंभीर पहल की। हालांकि जहां सत्ता में आना और उसमें किसी कीमत पर भी चुनाव जीतकर बने रहना ही लोकतंत्र माना जाता हो वहां जातिवाद साम्प्रदायिकता बाहुबलि भ्रष्टाचार झूठे दावे बेबुनियाद वादे चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद भी जनता के खाते में लाखों करोड़ सरकार के द्वारा डालते रहना चुनाव आयोग को गलत नहीं लगता। अगर आप गौर से जांच से करें तो आपको पता लगेगा कि चुनाव से ठीक पहले अनंत सिंह और आनंद मोहन सिंह को जेल से बाहर निकाला गया।
     इतना ही नहीं जेल में बंद प्रभुनाथ सिंह के भाई और बेटे को भी टिकट दिया गया। सत्ताधारी एनडीए के घटक दलों ने कुल आठ बाहुबलियों को टिकट दिया है। मोकामा के ही बाहुबलि सूरजभान नामांकन की अंतिम तिथि से पहले टिकट नहीं मिलने पर एनडीए से महागठबंधन में आकर टिकट पा गये। यूपी में 2012 के चुनाव में अखिलेश यादव ने अपना दामन साफ रखने के चक्कर में बाहुबलि डीपी यादव रमाकांत यादव राजा भैया बृजभूषण शरण सिंह अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी को मुलायम सिंह के लाख कोशिश करने पर भी अंतिम समय पर टिकट पर वीटो लगाकर वह चुनाव तो जीत लिया लेकिन वे अगली बार 2017 में जब हारे तो पता लगा एक वजह बाहुबलियों से उनका टिकट काटकर पंगा लेना भी था। सच यह है कि सामान्य या सज्जन विधायकों सांसदों के मुकाबले बाहुबलियों का साम दाम दंड भेद के द्वारा छोटे छोटे अपराधियों भ्रष्ट अधिकारियों और असरदार लोगों के साथ एक बड़ा पुख्ता व सक्रिय नेटवर्क होता है जो उनको न केवल चुनाव जिताने बल्कि जनप्रतिनिधि बनकर जनता के काम तत्काल कराने के लिये भी मुफीद होता है। उनके नाम के डर से भी वोट मिलते हैं। पुलिस प्रशासन उनके बताये काम लोभ और भय से करने से अकसर मना नहीं करते। जो ऐसा करने की हिमाकत करते हैं उनको सबक ये बाहुबलि खुद ही सिखा देते हैं। जनता को इनका यह अंदाज़ अच्छा लगता है।
      यहां तक कि ये बाहुबलि बच्चो के स्कूल एडमिशन और छोटे बड़े ठेके रोज़गार नौकरी इंटरव्यू सड़क बिजली कनेक्शन थाने में रपट राशन कार्ड विभिन्न सरकारी प्रमाण पत्र अस्पताल आॅप्रेशन तक के काम एक काॅल करके करा देते हैं जबकि बड़े बड़े नेता और अधिकारी स्कूल के मैनेजर और प्राचार्य से कई बार कहते कहते थक जाते हैं लेकिन वे उनकी काॅल तक सुनते ही नहीं। बाहुबलि अपने क्षेत्र में ही नहीं अपने आसपास के दर्जनभर चुनाव क्षेत्रों में भी उस दल को राजनीतिक लाभ पहुंचाता है जिसमें वह शामिल है। इलाहाबाद की आधे से अधिक सीटें समाजवादी पार्टी अतीक अहमद के बल पर जीत जाती थी। ऐसे ही बिहार में लालू यादव की सत्ता को लाने से लेकर बनाये रखने में शहाबुद्दीन जैसे बाहुबलि बड़ी भूमिका निभाते थे लेकिन सत्ता बदलने पर अधिकांश बाहुबलि नीतीश के दल में चले गये। इससे दोनों को संरक्षण मिला। इस समय शहाबुद्दीन अतीक और मुख्तार जैसे अधिकांश मुस्लिम बाहुबलियों को तो बदली सत्ता का साथ न देने पर ठिकाने लगा दिया गया है लेकिन हिंदू बाहुबलि अभी भी बड़ी संख्या में राजनीति में कई दलों के साथ काम कर रहे हैं। जब तक सियासत में नैतिकता शुचिता और पवित्रता नहीं आती बाहुबलियों को किसी ना किसी दल में सहारा मिलता ही रहेगा।
मस्लहल आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम,
तू नहीं समझेगा सियासत तू अभी नादान है।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 30 October 2025

बहनजी का विश्वास खत्म

*बहनजी का नहीं रहा विश्वास,* 
*मुस्लिम नहीं आयेगा उनके पास!*
0 बसपा सुप्रीमो बहन मायावती ने कहा है कि मुसलमानों ने सपा के साथ बार बार तनमनधन से जाकर देख लिया लेकिन वे बीजेपी को नहीं हरा सके। उन्होंने मुसलमानों को बसपा से जोड़ने के लिये भाईचारा संगठन में यूपी के 18 मंडलों में एक दलित व एक मुस्लिम को संयोजक बनाने की कवायद शुरू की है। विपक्ष का आरोप है कि कुछ दिन पहले माया ने लखनऊ में योगी सरकार के सहयोेग से बीजेपी के दबाव में एक बड़ी विशाल रैली भी की थी, जिसके द्वारा यह संदेश देने की नाकाम कोशिश की गयी कि बसपा ने पूरी तरह से अपना जनाधार नहीं खोया है। इस रैली के ज़रिये मुसलमानों को गुमराह करके बसपा के साथ आने का यह कहकर लालच दिया गया था कि बसपा भाजपा की बी टीम नहीं है। 
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     बसपा की मुखिया मायावती यह भूल रही हैं कि मुसलमान उस दौर में उनकी पार्टी के साथ फिर से जुड़ सकता है जिस दौर में उनके अपने दलित समाज ने उनका साथ छोड़ दिया है। यह बात उनकी किसी हद तक सही है कि अगर मुसलमान दलित समाज के साथ जुड़ जाये तो कुछ अन्य हिंदू कमज़ोर पिछड़े और शोषित वर्ग के प्रत्याशी उतारकर बसपा सपा कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के खिलाफ चुनाव जीत सकती है और माया इसी समीकरण के बल पर एक बार पूरे बहुमत से जीतकर यूपी में सरकार बना भी चुकी है। लेकिन उनको यह पता होना चाहिये कि केवल वोटों के समीकरण से चुनाव नहीं जीते जाते बल्कि इसके लिये जनता का पार्टी व उसके नेता में विश्वास होना पहली शर्त है। 2007 में माया को दलितों व मुसलमानों के साथ ही कुछ पिछड़ों व अगड़ों ने वोट देकर सरकार बनवाई थी। लेकिन उस दौर में माया ने सत्ता के बल पर सबका विकास करके सबका विश्वास जीतने की बजाये केवल दलितों को खुश करने को एकतरफा और पक्षपातपूर्ण तरीके से काम किया और करप्शन के रिकाॅर्ड तोड़कर वह बेहद कीमती मौका गंवा दिया। इसके बाद न केवल उनकी सत्ता चुनाव में छिन गयी बल्कि उनके खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति की जांच भी शुरू हो गयी। यही वजह है कि बहनजी जेल जाने के डर से बीजेपी के इशारे पर ऐसे काम बयान और फैसले करती हैं जिससे उनके अपने वोटबैंक दलित पिछड़े और मुसलमान उनसे धीरे धीरे किनारा करते गये। उनका विश्वास पूरी तरह खत्म होता जा रहा है।
       उनको जनता का बड़ा हिस्सा बीजेपी की बी टीम मानता है। बहनजी खुद भी बीजेपी से अधिक सपा और कांग्रेस के खिलाफ नज़र आती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर बसपा का वोट शेयर 1991 में सबसे अधिक 8.38 प्रतिशत था जबकि सांसद सबसे अधिक 2009 में 21 जीते थे तो 2024 में मत प्रतिशत देश में 2.06 यूपी में 9.39 परसेंट हो गया और सांसद शून्य हैं। यूपी की बात करें तो 2007 में उसका वोट प्रतिशत सबसे अधिक 30.43 था तो विधायक सबसे अधिक 207 जीते थे लेकिन 2022 के चुनाव में वोट 12.88 प्रतिशत तो विधायक मात्र एक रह गया है। माया यह भूल रही है कि उनसे अच्छे लच्छेदार और दिल को छू लेने वाले बयान एआईएमआईएम के ओवैसी देते हैं लेकिन उनको भी जब से मुसलमानों ने बीजेपी की बी टीम माना है, तब से बांस से छूने को भी तैयार नहीं हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती चाहे दावे कुछ भी करें लेकिन यह बात अब साफ हो गयी है कि वे मोदी सरकार के दबाव में अपने खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति मामले में जांच को दबाये रखने के लिये भाजपा के इशारे पर बहुजन समाज के हितों के खिलाफ राजनीति कर रही हैं। यही वजह है कि आम चुनाव शुरू होने के दौरान उनको जब इंडिया गठबंधन ने भावी पीएम का चेहरा बनाकर पेश करने के लिये विपक्षी गठबंधन में आने का न्यौता दिया तो वे इतना घबरा गयी कि बिना इस प्रस्ताव पर चर्चा किये ही उल्टा यह आरोप लगा दिया कि कुछ दल बसपा के बारे में विपक्षी गठबंधन में जाने की अफवाहें फैला रहे हैं।
       इससे पहले उन्होंने अपने भतीजे आकाश को चुनाव की कमान सौंप दी थी। जब आकाश जोरदार चुनाव प्रचार करके जल्दी ही मीडिया में चर्चित होने लगे तो उनके खिलाफ कुछ भाषण में अपशब्द कहने की भाजपा सरकार ने रिपोर्ट दर्ज कर दी। इसके बाद मायावती ने उनको उनके पद से हटाकर चुनाव प्रचार से भी रोक दिया। ऐसे ही मायावती ने जितने उम्मीदवार खड़े किये उनमें से जीता तो एक भी नहीं लेकिन चर्चा है कि गैर दलितों से चुनाव चंदे के रूप में मोटी रकम लेकर टिकट इस हिसाब से दिये गये जिससे अकेले यूपी में अकबरपुर अलीगढ़ अमरोहा बांसगांव भदोही बिजनौर देवरिया डुमरियागंज फरूखाबाद फतेहपुर सीकरी हरदोई मिर्जापुरा मिश्रिख फूलपुर शाहजहांपुर और उन्नाव आदि 16 सीट पर बसपा के प्रयाशियों ने इतने मुस्लिम दलित वोट काट लिये कि इंडिया गठबंधन का उम्मीदवार उससे कम वोटों के अंतर से भाजपा केंडीडेट से हार गया। लेकिन यहां सवाल बसपा सुप्रीमो की नीयत का है। वे लगातार ऐसे बयान देती रही हंै जिससे भाजपा को लाभ और सेकुलर दलों को नुकसान हुआ है। 2019 में सपा से गठबंधन करके जब उन्होंने यूपी में संसदीय चुनाव लड़ा था तो उनको शून्य से 10 सीट पर पहुंचने का भारी एकतरफा लाभ हुआ था। जबकि दलित वोट सपा को ना जाने से सपा की सीट पहले की तरह 5 ही रह गयी थीं। फिर भी पूरी बेशर्मी से बहनजी ने झूठ बोलते हुए गठबंधन से बसपा को लाभ ना होने का आरोप लगा कर भाजपा के दबाव में अलग होने का एलान कर दिया था।
       यह अजीब बात है कि आज जब उनकी पोल खुल चुकी है कि वे भाजपा की बी टीम वैसे ही नहीं कही जाती बल्कि इसके कई प्रमाण और उदाहरण लोगों के सामने आते जा रहे हैं। हम तो चाहते हैं कि मायावती क़सम खा लंे कि चाहे कोई मुसलमान कितनी ही बड़ी रकम चंदे मंे दे वे उसको किसी कीमत पर टिकट नहीं देंगी क्योंकि इससे मुसलमानों पर उनका एहसान होगा नुकसान नहीं। सच तो यह है कि करोड़ों रूपये देकर जो बसपा का टिकट लाता है। उसके पास अपवाद छोड़ दें तो नंबर दो यानी हराम का पैसा ही अधिक होता है। इससे मुसलमानों का आर्थिक नुकसान तो होता ही है। साथ साथ वोट काटकर बसपा भाजपा को हर बार कई सीट जिताकर राजनीतिक नुकसान भी करती है। मुसलमानों का एक वर्ग जो साम्प्रदायिक है और बसपा प्रत्याशी को अपने ही धर्म का देखकर केवल इस चक्कर में वोट कर देता है कि इससे संसद में मुसलमानों की संख्या कुछ बढ़ सकती है। जबकि सेकुलर दल और उनके हिंदू नेता आज के दौर में मुसलमानों के अधिकार की लड़ाई बसपा के मुस्लिम से बेहतर लड़ रहे हैं। बहनजी आरपीआई के प्रकाश अंबेडकर और असदुद्दीन ओवैसी जैसे डबल गेम खेलने वाले चालाक धूर्त सभी नेता यह समझ लें कि ये पब्लिक है सब जानती है।
0 एक आदमी में होते हैं दस बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना।।
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday, 23 October 2025

हरामखोर कौन

*50 परसेंट वोटर्स पर क्यों हैं मौन,*
 *गिरिराज को वेतन देता है कौन?* 
0 केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने उन सब लोगों को नमकहराम कहा है जो केंद्र सरकार की योजनाओं का लाभ तो लेते हैं लेकिन बीजेपी को वोट नहीं देते। भले ही उनका इशारा मुसलमानों की तरफ़ हो लेकिन सही बात यह है कि उन्होंने आधे से अधिक उन हिंदुओं को भी लपेट लिया है जो भाजपा को वोट नहीं देते। बीजेपी को लगभग 36 परसेंट वोट मिलते हैं। मुसलमान देश में 14 परसेंट हैं। तो जो 64 परसेंट वोटर्स बीजेपी को वोट नहीं देते उनमें 50 परसेंट गैर मुस्लिम हैं। दूसरी बात यह है कि गिरिराज सिंह को जो वेतन भत्ते और सांसद निधि मिलती है उसमें मुसलमानों के टैक्स का पैसा भी शामिल है। तीसरी बात यह है कि संविधान मंत्री को इस नफ़रत भेदभाव और पक्षपात की इजाज़त नहीं देता है।
  *-इकबाल हिन्दुस्तानी* 
बिहार के अरवल में एक रैली के दौरान केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने एक मौलवी के साथ अपने वार्तालाप को सुनाते हुए कहा है कि ‘‘हमने कहा आयुष्मान कार्ड मिला? उसने कहा हां मिला। हमने कहा हिंदू मुसलमान हुआ? उसने कहा नहीं। हमने कहा बहुत अच्छा आपने हमको वोट किया था? उसने कहा हां दिया था। मैंने कहा खुदा की नाम लेकर बोलिये? तो उसने कहा नहीं दिया था। हमने कहा नरेंद्र मोदी ने गाली दिया था, हमने गाली दिया था? कहा नहीं। मैंने कहा मेरी गल्ती क्या थी? जो किसी का उपकार ना माने उसे क्या कहते हैं? नमकहराम कहते हैं। हमने कहा मौलवी साहब हमें नमकहराम का वोट नहीं चाहिये।’’ इस बातचीत को पूरी तरह सच नहीं माना जा सकता क्योंकि गिरिराज अकसर झूठ बोलते हैं। दूसरी बात यह है कि चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि बीजेपी को मुसलमानों के 8 प्रतिशत वोट मिलते हैं। गरीब मुसलमान 11 परसेंट तक बीजेपी को वोट देता है। जबकि अमीर 6 और मीडियम क्लास मुसलमान 5 प्रतिशत वोट भाजपा को देता है।
       उधर हिंदू 85 प्रतिशत होकर भी केवल 28 प्रतिशत ही भाजपा को वोट देता है। केंदीय योजनाओं का लाभ तो हिंदू मुसलमान सभी ले रहे हैं। लेकिन यहां नोट करने वाली बात यह है कि जिस तरह से बीजेपी ने मुसलमानों का हर स्तर पर विरोध दमन अन्याय अत्याचार पक्षपात भेदभाव और उनसे दुश्मनी की हद तक नफ़रत का माहौल बनाकर हिंदू वोट बैंक की राजनीति की है, इसके बावजूद उसको उनके 8 परसेंट वोट मिलना भी हैरत और डर की बात है। अगर आज देश में कानून संविधान और समानता का राज होता तो गिरिराज सिंह जैसे लोग मंत्रिमंडल नहीं जेल में होते। उनकी सांसदी छिन चुकी होती। चुनाव आयोग जीवित होता तो उनके ज़हरीले चुनाव प्रचार पर रोक लगा चुका होता। सुप्रीम कोर्ट न्याय करता तो स्वयं सू मोटो लेकर उनको दो धर्म के लोगों के बीच दरार पैदा करने के लिये तलब कर सज़ा दे चुका होता। मीडिया ज़िंदा होता तो उनसे उनके ज़हरीले आपत्तिजनक और विवादित बयानों पर तीखे सवाल पूछ रहा होता।
        खुद मोदी अगर सबका साथ सबका विश्वास में विश्वास रखते तो उनको ना केवल मंत्री पद से बर्खास्त करते बल्कि भविष्य में चुनाव लड़ने को बीजेपी का टिकट भी नहीं देते। साथ ही सब भारतीयों का डीएनए एक बताने वाला संघ उनको अब तक कभी का आडवाणी बना चुका होता। लेकिन खेद है ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि यह सब एक सुनियोजित योजना बीजेपी का एजेंडा और उसके नफ़रत झूठ व बांटो और राज करो की घटिया नीति का सोचा समझा हिस्सा है। लेकिन बीजेपी को यह नहीं भूलना चाहिये कि बढ़ते करप्शन अपराध बेरोज़गारी महंगाई गरीबी भुखमरी अराजकता साम्प्रदायिकता घृणा झूठ जातिवाद हिंसा माॅब लिंचिंग बलात्कार पक्षपात भेदभाव वोट चोरी अन्याय अत्याचार शोषण घोटालों आॅनलाइन स्कैम आवारा पूंजीवाद रिश्वतखोरी कमीशनखोरी का अनुपात के हिसाब से नुकसान उनको ही अधिक संख्या में हो रहा है जिनका जनसंख्या में हिस्सा अधिक है। केवल मुसलमानों को हर समस्या के लिये टारगेट करके अपने कुकर्मों का ठीकरा बार बार उन पर फोड़कर हिंदुओं को अब आगे लंबे समय तक धोखा नहीं दिया जा सकता। अगर बीजेपी इतनी ही लोकप्रिय होती तो उसको राहुल गांधी के वोट चोरी के आरोपों का सामना नहीं करना पड़ता वह निष्पक्ष जांच कराकर विपक्ष को विश्वास में ले सकती थी।   
       अगर चुनाव आयोग निष्पक्ष निडर और कानून के अनुसार काम कर रहा होता तो किसी पार्टी किसी नेता और किसी बड़े से बड़े पद पर बैठे लीडर को हिंदू मुस्लिम जाति व धर्म के आधार पर वोट मांगने से रोकता लेकिन यहां तो चुनाव आयोग क्या मीडिया से लेकर ईडी सीबीआई व इनकम टैक्स विभाग जैसी लगभग सभी संस्थायें एक दल और उसके सहयोगियों को छोड़कर विपक्ष सरकार विरोधियों और निष्पक्ष सभी भारतीयों को लगातार निशाना बना रहा है और अफसोस की बात यह है कि कोर्ट भी इस पक्षपात अन्याय और उत्पीड़न को रोकने में अकसर नाकाम नज़र आता है। मुसलमानों की आबादी देश में 14 प्रतिशत से अधिक है लेकिन वे सरकारी नौकरी से लेकर निजी क्षेत्र की सेवा उद्योगों बैंक सेवा बैंक लोन सरकारी पेट्रोल पंप गैस एजेंसी राशन डीलर सरकारी ठेकों आईआईटी आईआईएम लोकसभा विधानसभा नगर निगम नगरपालिका सरकारी अस्पतालों की सेवा विभिन्न आयोगों सरकारी स्कूलों काॅलेजों यूनिवर्सिटी कोर्ट जजों पुलिस सेना प्रशासनिक अधिकारियों यानी कहीं भी 14 का आघा 7 तो दूर 3.5 प्रतिशत तक नहीं हैं। ऐसे में उनको उनके हिस्से अधिकार और अनुपात से अधिक क्या मिल रहा है?
       भाजपा अकसर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती है। लेकिन उसको कोई गंभीरता से नहीं लेता। अगर वह बढ़ती आबादी को लेकर वास्तव में चिंतित होते तो सबके लिये अनिवार्य परिवार नियोजन यानी दो बच्चो का कानून बनाने की दस साल में हिम्मत दिखाते लेकिन वे जानते हैं इससे तो उनका हिंदू वोटबैंक भी नाराज़ हो जायेगा इसलिये उनको तो बस घृणा झूठ और हिंदुत्व की राजनीति करनी है। दूसरा तथ्य इस सारी बहस में यह भुला दिया गया है कि आबादी ज्यादा बढ़ना या तेजी से बढ़ना किसी सोची समझी योजना या धर्म विशेष की वजह से नहीं है बल्कि तथ्य और सर्वे बताते हैं कि इसका सीधा संबंध शिक्षा और सम्रध्दि से है। अगर आप दलितों या गरीब हिंदुओं की आबादी की बढ़त के आंकड़े अलग से देखें तो आपको साफ साफ पता चलेगा कि उनकी बढ़त दर कहीं मुस्लिमों के बराबर तो कहीं उनसे भी अधिक है। कहने का अभिप्राय यह है कि जिस तरह केरल सबसे शिक्षित राज्य है और वहां आबादी की बढ़त 2.01 प्रतिशत यानी लगभग जीरो ग्रोथ आ गयी है जिसमें मुस्लिम भी बराबर शरीक है, ऐसे ही देश में सबसे कम आबादी की बढ़त वाले राज्यों में मुस्लिम बहुल कश्मीर सबसे आगे हैं। देश में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी की बढ़त असम में 30.9 से बढ़कर 34.2 प्रतिशत पाई गयी है जिसका साफ मतलब है कि बंग्लादेशी घुसपैठ से भी यह उछाल आया है लेकिन सीमा पर घुसपैठ रोकने की ज़िम्मेदारी भी केंद्र सरकार की है।  
*0चाकू की पसलियों से सिफ़ारिश तो देखिये,*
*वह चाहता है काटने में उसको मदद करें।।* 
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के संपादक हैं।*

Thursday, 9 October 2025

बिहार का विवादित एसआईआर

*बिहार का विवादित एसआईआर,* 
 *केंचुआ नहीं मान रहा आधार?* 
0 बिहार का एसआईआर पूरा हो गया। अंतिम मतदाता सूची भी आ गयी लेकिन इस पर विवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। चुनाव विश्लेषक और समाजसेवी योगेंद्र यादव का कहना है कि बिहार की कुल व्यस्क आबादी के अनुसार राज्य में 8 करोड़ 22 लाख वोटर होने चाहिये। लेकिन एसआईआर की लास्ट वोटर लिस्ट में 80 लाख वोटर कम हैं। ऐसे ही नये वोटर बनने के लिये आयोग के अनुसार अंतिम तिथि तक 16 लाख 93 हज़ार लोगों ने आवेदन किया था लेकिन नये मतदाता 21 लाख 53 हज़ार बना दिये गये। सवाल यह है कि 4 लाख 60 हज़ार नये मतदाता कहां से आ गये? एक करोड़ 30 लाख से अधिक वोटर के पते सन्दिग्ध हैं। 3 लाख 66 हज़ार नाम जो काटे गये उनका कारण भी नहीं बताया जा रहा है।    
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
       बिहार में 2020 में हुए विधानसभा चुनाव में महागठबंधन और एनडीए एलाइंस के बीच मात्र 11150 वोट का अंतर था। इसकी वजह औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम को माना गया था। जिसने 4 सीट जीती और 11 सीट पर महागठबंधन के वोट काटकर 15 सीट के मामूली बहुमत से जेडीयू भाजपा की सरकार बनवाने में अहम भूमिका अदा की थी। विपक्ष का आरोप था कि इस बार महागठबंधन के जीतने के पूरे पूरे आसार देखकर केंचुआ मोदी सरकार के इशारे पर एसआईआर के बहाने विपक्ष के वोट काट रहा है और भाजपा जेडीयू के फर्जी वोट बढ़ा रहा है। एसआईआर जिस जल्दबाज़ी और गैर पारदर्शी तरीके से किया गया है। उससे भी विपक्ष के आरोपों को बल मिल रहा है। बताया जाता है कि जिन लाखों लोगों के वोट केंचुआ ने काटे हैं उनकी विस्तृत जानकारी बार बार मांगने के बाद भी वह अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक नहीं कर रहा है कि उनके वोट किस वजह से काटे गये हैं? एसआईआर के दौरान भाजपा ने यह भी दावा किया था कि राज्य में बड़े पैमाने पर विदेशी घुसपैठ हुयी है। लेकिन अब यह नहीं बताया जा रहा है कि कितने घुसपैठियों के वोट काटे गये? यह भी नहीं बताया जा रहा है कि केंचुआ को कैसे पता लगा कि अमुख मतदाता विदेशी है? क्योंकि यह जांचने का काम तो गृह मंत्रालय का है।
      यह बात एसआईआर पर चर्चा के दौरान खुद सुप्रीम कोर्ट कह चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने कंेचुआ को कई बार यह भी सलाह निर्देश और आदेश दिया कि वह मतदाता की पहचान के लिये आधार को 12 वां दस्तावेज़ स्वीकार करे, लेकिन केंचुआ अभी भी मक्कारी करते हुए कह रहा है कि वह सुप्रीम कोर्ट के आधार को लेकर दिये गये आदेश का सम्मान करता है लेकिन पूरे देश में वह आधार तभी स्वीकार करेगा जब पहले से दी गयी पहचान पत्रों की 11 की लिस्ट में से कोई एक कागज़ आधार के साथ दिया जायेगा। क्या इसका मतलब यह नहीं है कि आधार स्वीकार नहीं किया जा रहा है क्योंकि जब उसके साथ पहले से बताये गये 11 में से एक दस्तावेज़ देना ज़रूरी है तो आधार का क्या मतलब रह गया? एसआईआर के बाद जो वोटर लिस्ट सामने आई है उसमें दो लाख से अधिक मतदाताओं के पते के सामने कुछ भी नहीं लिखा है। ऐसे ही 24 लाख घर ऐसे हैं जिनमें 10 से अधिक लोग रहते हैं, क्या यह शक की बात नहीं है। रिपोर्टर कलक्टिव की रिपोर्ट के अनुसार 14 लाख 35 हज़ार वोट अभी भी डुप्लिकेट हैं। इसमें वोटर का नंबर तो अलग अलग है लेकिन उनके माता पिता का नाम एक ही है। उनके अनुसार एक ही पते पर 505 मतदाता अभी भी मौजूद होना एसआईआर की पूरी कवायद को शक के दायरे मंे लाता है। ऐसे ही एक अन्य जगह पर 442 मतदाता एक साथ रहते पाये गये हैं। इनके धर्म और जाति भी अलग अलग है। एक करोड़ 32 लाख मतदाताओं के पते संदिग्ध हैं। अगर केंचुआ के कर्मचारियों ने घर घर जाकर एक एक मतदाता का सत्यापन किया होता तो इतनी बड़ी कमियां गल्तियां और खामियां नहीं होतीं।
      चुनाव आयोग ने अपनी प्रेस वार्ता में एक साथ पांच पांच रिपोर्टर के सवाल लिये जिससे असुविधाजनक सवालों को वह जवाब देने से टाल गया। न्यूज़ लांड्री की रिपोर्ट के अनुसार 2 लाख 92 मतदाताओं के घर का पता जीरो दर्ज किया गया है। इस मतदाता सूची में पहले की तरह लिंग उम्र और अन्य आधार पर दी जाने वाली आठ अलग अलग जानकारी भी केंचुआ देने से पीछे हट गया है। विधानसभा सीट वार कितने वोट काटे गये और कितने नये जोड़े गये यह भी केंचुआ नहीं बता रहा है क्योंकि उसको डर है कि इससे स्थानी लोग उसकी गड़बड़ी और भी जल्दी पकड़ लेंगे। डिजिटली रीडेबिल वोटर लिस्ट के लिये भी विपक्ष को सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगानी पड़ी है तो केंचुआ आखिर छिपाना क्या चाहता है? वह लेवल प्लेयिंग फील्ड उपलब्ध कराकर अपने माथे पर लगा सरकार का कठपुतली होने पर दाग हटाने को चिंतित क्यों नहीं है? चुनाव की तिथि घोषित होने के अंतिम समय तक निष्पक्षता किनारे कर नीतीश सरकार एक करोड़ महिलाओं के खाते में 10 दस हज़ार रूपये एक तरह से रिश्वत के तौर पर भेजती रही लेकिन केंचुआ का मुंह बंद ही रहा। विपक्ष का यह भी आरोप है कि आयोग ने नये मतदाता बनाने के नाम पर एक एक घर एक एक फ्लैट और एक एक अपार्टमेंट में 100 से 200 तक मतदाता बिना कड़ी जांच पड़ताल के कैसे संदिग्ध रूप से बना दिये? विपक्ष का कहना है कि अब बिहार के बाद बंगाल और फिर पूरे देश में स्पेशल इंटैन्सिव रिवीज़न के नाम पर चुनाव आयोग सत्ताधारी दल के इशारे पर मनमाने तरीके से विपक्ष के परंपरागत समर्थक मतदाता खासतौर पर दलित आदिवासी अल्पसंख्यक और गरीब कमज़ोर वर्ग के वोट एक सुनियोजित षड्यंत्र, अभियान और योजना के तहत काटने पर तुला है।
       विपक्ष का आरोप है कि जो विपक्ष के असली वोटर काटे जाते हैं उनके बदले भाजपा के उतने ही फर्जी मतदाता जोड़ दिये जाते हैं जिससे हर सीट पर 20 से 30 हज़ार वोट का अंतर आ जाता है।  रहा कुछ फर्जी राशन आधार और वोटर कार्ड का सवाल तो जो 11 डाक्यूमेंट की लिस्ट आयोग ने मतदाता जांच के लिये जारी की है, उनमें भी कुछ नकली और फर्जी हो ही सकते हैं जैसा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि दुनिया का ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है जिसको कुछ लोग फर्जी ना बना लेते हों लेकिन इसकी जांच कर व्यक्तिगत स्तर पर ऐसे लोगों की पहचान कर उनके कागजों को अमान्य किया जा सकता है लेकिन इस बहाने सबके आधार वोटर और राशन कार्ड को ठुकराना गलत है। सच तो यह है कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता सरकार ने उसी दिन खत्म कर दी थी जिस दिन चुनाव आयुक्त चुनने वाली कमैटी से चीफ जस्टिस को बाहर कर विपक्ष के नेता व पीएम के साथ उनके एक और मंत्री को शामिल करने का कानून बना था। यही वजह थी इस दौरान एक चुनाव आयुक्त गोयल ने इस्तीफा भी दे दिया था। वीडियो फुटेज ना दिखाना विपक्ष को डिजिटल वोटर लिस्ट ना देना और एक ही पते पर सैंकड़ो लोगों का वोट बन जाना कुछ ऐसे चर्चित विवादित और शक पैदा करने वाले अनेक मामले हैं जिनसे केंचुआ की साख रसातल में जा रही है, लेकिन उसे और सरकार को कोई मतलब नहीं है। केंचुआ पर एक शेर याद आ रहा है-उसके होंटों की तरफ ना देख वो क्या कहता है, उसके क़दमों की तरफ देख वो किधर जाता है।
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 18 September 2025

केंचुआ का दुस्साहस

*केंचुआ क्यों कर रहा है मनमानी,* 
*सुप्रीम कोर्ट की भी नाफ़रमानी?*
0 केंद्रीय चुनाव आयोग यानी केंचुआ सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को बार बार अनदेखा कर दावा कर रहा है कि सुप्रीम कोर्ट उसको पूरे देश मंे एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण करने से नहीं रोक सकता? केंचुआ ने यह चुनौती सबसे बड़ी अदालत को अपने लिखित शपथ पत्र में दी है। यह हैरत और चिंता की बात है कि जो सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति गवर्नर और संसद तक को समय समय पर संविधान के खिलाफ काम करने पर चेतावनी पुनर्विचार या उनके बनाये नियम कानूनों तक को निरस्त कर चुका है, उस सर्वोच्च न्यायालय को चुनाव आयोग किसके बल बूते पर चुनौती देने का दुस्साहस कर रहा है? अगर 2014 से पहले का दौर होता तो अब तक सुप्रीम कोर्ट मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से हटाकर जेल भेज चुका होता...।     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     केेंचुआ यानी केंद्रीय चुनाव आयोग ने कहा है कि पूरे देश में होने वाले मतदाता सूचियों के एसआईआर यानी विशेष गहन पुनरीक्षण में अब अधिकतर राज्यों में आधे से अधिक मतदाताओं को कोई भी दस्तावेज़ देने की आवश्यकता नहीं होगी। आयोग का दावा है कि 1978 से पहले पैदा हुए लोगों को कोई कागज़ नहीं देने की छूट दी गयी है। इसके साथ ही केंचुआ ने अपनी बात काटते हुए इसी प्रेस रिलीज़ में यह भी कहा है कि ऐसे लोगों को केवल एक हलफनामा देना होगा जिसके साथ एक ऐसा दस्तावेज़ देना ज़रूरी होगा जिससे उनके जन्मतिथि और जन्मस्थान की प्रमाणिकता की पुष्टि होती हो। ऐसा लगता है कि केंचुआ अपने दिमाग से काम न करते हुए किसी के मौखिक आदेश पर काम कर रहा है? उसको यह मामूली सी बात भी समझ में नहीं आ रही कि जन्मतिथि और जन्मस्थान का प्रमाण पत्र भी दस्तावेज़ ही होता है। जब शपथ पत्र के साथ 1978 से पहले पैदा हुए मतदाताओं को यह दस्तावेज़ देना ज़रूरी है तो यह झूठ क्यों बोला जा रहा है कि ऐसे लोगों को कोई दस्तावेज़ नहीं देना है। सवाल यह भी उठता है कि जब आप किसी से अपने जन्म की तिथि और जन्म के स्थान के बारे में प्रमाण मांग रहे हैं तो एक तरह से नागरिकता का ही प्रमाण मांग रहे हैं। 
     जबकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि नागरिकता तय करने का काम केंचुआ नहीं गृह मंत्रालय का है। दूसरी बात जो लोग आज से 47 साल पहले यानी 50, 60, 70 या 80 साल पहले पैदा हुए थे वे अपना जन्म का प्रमाण पत्र कहां से लायेंगे? उन दिनों कौन बनवाता था जन्म का प्रमाण पत्र? और अगर किसी ने बनवाया भी होगा तो वह अधिक से अधिक जन्म तिथि का प्रमाण पत्र या हाईस्कूल की मार्कशीट हो सकती है। वो भी 5 से 10 प्रतिशत लोगों के पास ही मिलेगी। सरकारी नौकरी न मिलने या सब काम आजकल आधार से होने की वजह से अधिकांश लोगों ने वह जन्म का प्रमाण भी शायद ही संभाल कर रखा हो। आधार पर याद आया जब सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में एसआईआर शुरू करने के दौरान केंचुआ से कहा कि वह आधार को भी उन 11 दस्तावेज़ों में शामिल करे जो वह राज्य में मतदाताओं से उनके नाम मतदाता सूची में शामिल करने के लिये अनिवार्य तौर पर मांग रहा है। केंचुआ ने सबसे बड़ी अदालत के बार बार निर्देश देने के बावजूद आधार को तब तक उस सूची में शामिल नहीं किया जब तक कि याचिका कर्ताओं ने केंचुआ के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से उसकी अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की शिकायत दर्ज नहीं करा दी। यह बात भी रहस्य बनी हुयी है कि सुप्रीम कोर्ट क्यों केंचुआ को इतनी मनमानी और नाफरमानी की खुलेआम छूट दे रहा है? 
      जिससे उसका दुस्साहस इतना बढ़ गया है कि वह सबसे बड़ी अदालत को बाकायदा लिखित में यह चुनौती शपथ पत्र दााखिल करके दे रहा है कि उसके एसआईआर के काम में सुप्रीम कोर्ट दखल नहीं दे सकता? यानी केंचुआ कुछ भी गैर कानूनी नियम के खिलाफ और संविधान को ताक पर रखकर मनमानी करने को आज़ाद है? वह भूल गया है कि केंचुआ जनता का नौकर है। नौकर अगर जनता के खिलाफ काम करेगा तो उसको जनता कोर्ट में चुनौती देगी और सुधार नहीं करेगा तो नौकरी से भी निकाला जा सकता है। अगर केंचुआ के पीछे मोदी सरकार नहीं खड़ी है तो उसकी इतनी हिम्मत और हिमाकत कैसे हो गयी कि वह चोरी और सीना ज़ोरी कर रहा है? जब संसद से बने कानून को सुप्रीम कोर्ट निरस्त या संशोधित कर स्टे कर सकता है तो केंचुआ की सुप्रीम कोर्ट के सामने औकात ही क्या है? 
      समाजसेवी और चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव का दावा है कि बिहार में केंचुआ की कारस्तानी की पोल खुल चुकी है। वहां उसने 65 लाख लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर कर दिया। जब 16 लाख लोगों ने अपना नाम शामिल करने और 4 लाख लोगों ने आपत्ति दर्ज की तो पता चला कि 40 प्रतिशत से अधिक वो लोग हैं जिनकी आयु 25 से 100 साल के बीच है। यानी ये लोग पहली बार वोटर बनने के लिये नहीं अपना फर्जी तरीके से कट गया नाम जुड़वाने के लिये आवेदन कर रहे हैं। इनको केंचुआ कह रहा है कि अपना पुराना इपिक भूल जाओ और नये सिरे से मतदाता बनने के लिये ज़रूरी कागजात जमा करो। केंचुआ के दावा है कि आॅब्जक्शन करने वाले 4 लाख लोगों में से 58 प्रतिशत कह रहे हैं कि उनका नाम लिस्ट से काट दीजिये क्योंकि वे मर चुके हैं, विदेशी हैं या कहीं राज्य से बाहर रहने लगे हैं। अब सोचिये क्या कोई मृतक या विदेशी ऐसा कह सकता है? यह सब फर्जीवाड़ा खुद चुनाव आयोग अपने बीएलओ के द्वारा करा रहा है जिससे चुनाव आयोग ने हमारे चुनाव वोटर लिस्ट और लोकतंत्र को तमाशा बना कर रख दिया है। एक शायर ने कहा है-
 *लश्कर भी तुम्हारा है सरदार भी तुम्हारा है,* 
 *तुम झूठ को सच लिख दो अख़बार भी तुम्हारा है।* 
 *इस दौर के फ़रियादी जाएं भी तो कहां जायें,* 
 *सरकार भी तुम्हारी है दरबार भी तुम्हारा है।।* 
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Thursday, 11 September 2025

नेपाल और सोशल मीडिया

*सोशल मीडिया बैन से जला नेपाल,*
 *या इसके पीछे है विदेशी चाल?* 
0 ‘हामी नेेपाल’ यानी हामरे अधिकार मंच इनिशिटिव पेशेवर इवेंट मैनेजर सुदन गुरूंग ने 2015 में बनाया था। इसका मुख्य काम आपदा के समय लोगों की मदद करना और जनता में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करना बताया जाता है। इस संगठन का संबंध विदेशी दूतावासों से रहा है। इसको विदेशी पैसा भी मिलता रहा है। हामी नेपाल के आव्हान पर ही पिछले दिनों नेपाल में ज़बरदस्त हिंसा व आगज़नी हुयी है। कहने को 26 सोशल मीडिया एप पर लगायी गयी रोक इस हंगामे का तत्काल कारण मानी जा रही है लेकिन इससे केवल चिंगारी भड़की है, वहां विरोध आक्रोष और तनाव का बारूद पहले ही मौजूद था। जेन जे़ड यानी 1997 से 2012 के बीच पैदा हुयी पीढ़ी के आंदोलन के पीछे कहीं अमेरिका तो नहीं?     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
    काठमांडू के 17 साल के छात्र विलोचन पौडेल का कहना है कि ‘‘तीन बड़ी पार्टियांे को बार बार मौका मिलता है, वे कुछ नहीं करती। न अच्छा शासन लाती हैं न विकास। वे दूसरों को भी काम नहीं करने देतीं। हालात ऐसे हो गये हैं कि आम लोगों को बुनियादी स्वास्थ्य सेवायें तक नहीं मिल पा रहीं। हमें इस कुप्रशासन के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी...तभी देश आगे बढ़ेगा।’’ 23 साल की लाॅ ग्रेज्युएट सादिक्षा का कहना है कि ‘‘यह सिर्फ फेसबुक या टिकटाॅक पर रोक की बात नहीं है। यह उन नेताओं की बात है जो हमारे टैक्स लूटते हैं। जो अमीर बनते जाते हैं जबकि युवाओं के पास नौकरियां नहीं हैं। अब बस बहुत हो गया।’’ इसमें कोई दो राय नहीं नेपाल में जनता में असंतोष है। वहां 12 प्रतिशत से अधिक बेरोज़गारी है। गरीबी है। भुखमरी है। हर साल चार लाख युवा देश छोड़कर काम की तलाश में भारत सहित विदेश जाने को मजबूर हैं। राजनीतिक अस्थायित्व भी है। कोई सरकार कोई पीएम पूरे पांच साल नहीं टिक पाता है। शासन प्रशासन में जमकर भ्रष्टाचार भी चल रहा है। नेताओं के बच्चे आराम की ज़िंदगी जी रहे हैं। विदेशों में पढ़ रहे हैं। मौज मस्ती कर रहे हैं। बड़े बड़े नेता बड़े बड़े सरकारी बंगलों में ऐश कर रहे हैं। खूब कमीशन खा रहे हैं। ऐसा तो और भी कई देशों में हो रहा है लेकिन वहां तो ऐसा खूनखराबा नहीं हो रहा है। 
    दरअसल जो दिख रहा है वह इतना सामान्य नहीं है। नेपाल में जैसे अचानक सरकार की सोशल मीडिया पर खिंचाई शुरू हुयी। सरकार ने सोशल मीडिया के 26 एप पर रोक लगा दी। बहाना भले ही उनके रजिस्ट्रेशन न कराने का लिया गया हो। यह सब इतना स्वतः स्फूर्त नहीं है कि दस बीस हज़ार की भीड़ सड़कों पर निकली और उसने संसद सुप्रीम कोर्ट और पक्ष विपक्ष के नेताओं के घरों में आग लगा दी। सेना और पुलिस बजाये शासकों की रक्षा करने के पीएम से कहती है कि आप पद से इस्तीफा देकर देश छोड़कर निकल भागिये। पद छोड़ते ही सेना उसको अपने हेलिकाॅप्टर से सुरक्षित स्थान पर पहंुचा देती है। कुछ लोग इसको बगावत और क्रांति का नाम दे रहे हैं लेकिन यह स्वाभाविक तख्तापलट नहीं है। दक्षिण एशिया में यह एक पेटर्न है। इससे पहले श्रीलंका बंगलादेश पाकिस्तान अफगानिस्तान के साथ ही यूक्रेन म्यांमार टयूनीशिया मिस्र सूडान माली नाइज़र जाॅर्जिया किर्गिस्तान बोलिविया और थाईलैंड में ठीक इसी तरह से सत्ता औंधे मुंह गिराई जा चुकी हैं। इनमें से कुछ सरकारें चीन के बहुत करीब जा रही थीं। यह बात अमेरिका को पसंद नहीं थी। इसके बाद जो नई कठपुतली सरकारें बनीं उनको अमेरिका ने खुलकर आर्थिक पैकेज भी दिये। मिसाल के तौर पर श्रीलंका में तख्तापलट के बाद अमेरिका ने 5.75 मिलियन डाॅलर की मानवीय सहायता दी थी। 
       बंगलादेश में तख्तापलट के समय अमेरिका ने सेना के तटस्थ हो जाने और वहां की पीएम शेख हसीना को देश छोड़कर भागने को मजबूर करने लिये सेना की सराहना की और अंतरिम सरकार बनाने से लेकर चलाने तक समर्थन व सहयोग का वादा किया। अमेरिका ने 2011 में टयूनीशिया मेें 2013 में मिस्र में 2014 में यूक्रेन में 2019 में सूडान में 2003 में जाॅर्जिया में 2010 में किर्गिस्तान में और 2019 में बोलीविया में भी यही खेल किया था। अब नेपाल में भी यही कहानी दोहराने की कवायद चल रही है। जिन देशों में तख्तापलट हुआ वे रूस या चीन के निकट जाते दिख रहे थे। दरअसल इतने बड़े आंदोलन तोड़फोड़ आगज़नी और बड़े नेताओं के घरों पर हमले अचानक नहीं होते। इनके लिये बहुत पहले से विस्तृत जानकारी सुनियोजित रोडमैप बड़ी मात्रा में धन और विशाल संसाध्न जुटाने होते हैं जो कि युवाओं का कोई समूह रातो रात नहीं कर सकता है। इसके पीछे विपक्ष विदेशी शक्तियां और ठेके पर काम करने वाले एनजीओ होते हैं। जो इन सारी व्यवस्थाओं को काफी समय पहले संभालते हैं। इसके बाद नेपाल की तरह सोशल मीडिया एप पर पाबंदी की आड़ में पहले से पैदा हो रहे विरोध नाराज़गी और क्रोध के विस्फोटक में चिंगारी लगाने का बहाना तलाशा जाता है। 
       नेपाल की केपी शर्मा ओली सरकार अमेरिका को खफा करके लगातार चीन से नज़दीकी बढ़ा रही थी। अमेरिकी मीडिया काफी समय से ओली सरकार के खिलाफ फेक न्यूज़ और अफवाहंे फैला रहा था। इन पर रोक लगाने को जैसे ही ओली सरकार ने सोशल मीडिया को सेंसर करने के लिये कदम उठाये विदेशी शक्तियों को विद्रोह कराने का अवसर मिल गया। दअसल व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे दर्जनों सोशल मीडिया एप इस साज़िश में अमेरिका का साथ दे रहे थे। वे नेपाल सरकार की एक नहीं सुन रहे थे। यही वह जाल था जिसमें ओली सरकार फंस गयी। जब इन 26 एप ने बार बार दबाव डालने पर भी हेकड़ी दिखाते हुए अपना रजिस्टेªशन नहीं कराया तो ओली सरकार ने तत्काल दबाव बनाने को इन पर रोक लगा दी। यहीं से युवाओं को भड़काने की चाल सफल हो गयी। इसके लिये सरकार और विपक्षी नेताओं के भ्रष्टाचार को भी आधार बनाया गया जो पहले से दुखी बेरोज़गार और पलायन के लिये मजबूर नेपाली युवा के दिमाग में आसानी से बैठ गया। इसके बाद जब ये एप खोल भी दिये गये तो भी आंदोलन न रूकने का मतलब समझा जा सकता है। इस मामले में भारत को भी संयम बरतकर चीन से नज़दीकी बढ़ाने की एक सीमा तय करनी चाहिये क्योंकि हम अमेरिकी विरोध भी एक सीमा तक ही सहन कर सकते हैं। साथ ही हमें अपनी संवैधानिक संस्थाओं को आज़ादी देते हुए निष्पक्ष ईमानदार व मज़बूत बनाने के साथ आम आदमी युवाओं और कमज़ोर वर्गों की पहले से अधिक चिंता करनी चाहिये।   
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*

Wednesday, 3 September 2025

निक्की भाटी की दहेज़ हत्या

*निक्की भाटी की हत्या लक्षण है,*
*असली रोग समाज का लोभ है!*
0 21 अगस्त को ग्रेटर नोयडा में 26 साल की निक्की भाटी की दहेज़ के लिये निर्मम हत्या कर दी गयी। इसके साथ ही यह बहस एक बार शुरू हो गयी कि दहेज़ हत्या के लिये क्या पति सास ससुर और उसकी ननद ही ज़िम्मेदार होते हैं? या उसके माता पिता रिश्तेदार और पुरूषप्रधान समाज का लड़की को वस्तु समझना बोझ समझना और किसी तरह से उसकी शादी करके सदा के लिये उससे मुक्ति पाने की सोच भी इस तरह के अपराध के लिये उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं? निक्की का मर्डर केवल दहेज़ के लिये नहीं बल्कि उसका अपने पैरों पर खड़े होने को फिर से ब्यूटी पाॅर्लर खोलने की ज़िद, लगातार टाॅर्चर किये जाने के बावजूद उसके परिवार वालों का उसको पुलिस के पास न भेजकर समझा बुझाकर वापस उसकी ससुराल भेजना और लड़की को डोली में विदा कर उस घर से अर्थी या जनाजे़ में ही निकलने की दकियानूसी सीख भी वजह बनी है?     
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के अनुसार 2022 में कुल 6450 महिलायें दहेज़ के लिये यातनायें देेकर मारी जा चुकी हैं। दहेज़ हत्या के 60,577 मामलों में केवल 1231 में दोषियों को सज़ा मिली हैं। हमें लगता है कि देश में जिस तरह से लोकलाज गरीबी और विभिन्न सामाजिक भेदभाव के चलते अधिकांश अपराध के मामले दर्ज ही नहीं हो पाते उस हिसाब से दहेज़ हत्या के वास्तविक आंकड़े कई गुना अधिक हो सकते हैं। यह हमारे पूंजीवाद समाज के लिये शर्म की बात है कि आज खुलेआम अधिकांश लोग शादी के लिये रिश्ते की बात तय करते हुए साफ़ साफ़ पूछ लेते हैं कि लड़के वालों की क्या मांग है? उसके बाद लड़की वाला अपना बजट बताता है। फिर दोनों पक्षों में जब किसी खास रकम पर बात तय हो जाती है तो यह भी खोल दिया जाता है कि कितना पैसा किस तरह से लड़की पक्ष की ओर से खर्च किया जायेगा। इसके बाद कई बार यह भी होता है कि लड़के वाला और अधिक की मांग रखता जाता है जबकि लड़की वाला यह कहकर शादी की तैयारी शुरू कर देता है कि चलो देखा जायेगा...। हो जायेगा, देख लेंगे, सोच लेंगे, कोशिश करेंगे आदि आदि। इसके साथ ही कभी कभी यह भी होता है कि तयशुदा रकम या सामान मिलने के बावजूद लड़के वाले की लालच की भूख खत्म नहीं होती और घटिया नीच व अत्यधिक लोभी परिवार होने की वजह से वे एक के बाद एक नई मांग रखते जाते हैं।
    जिससे एक न एक दिन लड़की वाले का बजट और सहनशीलता की सीमा टूट जाती है। इसके बाद टकराव तनाव और लड़की का दहेज़ के लिये उत्पीड़न मानसिक से बढ़कर शारिरिक और पुलिस की थर्ड डिग्री के तौर तरीकों तक पहुंच जाता है। ऐसे में लड़की या तो अपने माता पिता की मजबूरी समझकर चुपचाप सहन करती रहती है या फिर उनको बता भी देती है तो वे असहाय परेशान और तलाक दिलाकर फिर से लाखो रूपये खर्च करने की हैसियत न होने या पैसा हो भी तो सामाजिक पारिवारिक व आर्थिक कारणों से इस जानलेवा समस्या को अनदेखा करते रहते हैं। यह हमारे पुरूषप्रधान समाज की ही निष्ठुरता निर्दयता और बेईमानी है कि लड़की का तलाक होने पर उसकी दूसरी शादी होनी मुश्किल हो जाती है जबकि लड़की को दहेज़ के लिये सताकर मारने वाले लड़के की फिर से शादी बिना किसी बड़े नुकसान सामाजिक प्रतिष्ठा और लोकलाज को दरकिनार हो जाती है। यह हमारे समाज का दोगलापन बड़बोलापन और नैतिक रूप से खोखलापन ही कहा जा सकता है। निक्की के पिता ने शादी में लगभग 30 लाख खर्च किये थे जो कि छोटी रकम नहीं होती। साथ ही स्काॅर्पियो कार बुलेट मोटर साइकिल और भरपूर जे़वर व दूसरे घरेलू इस्तेमाल के महंगे सामान के साथ ही भव्य दावत भी दी थी। लेकिन कहते हैं कि लालची आदमी को आप सारा ज़मीन आसमान भी दे देंगे तो भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता है। कुछ लोग आज भी शादी में अपनी बेटी को विदा नहीं करते बल्कि गर्व से इसे कन्यादान कहते हैं।
     क्या लड़की कोई सामान है? वह कोई सम्पत्ति है? जो उसको दान किया जाता है? कुछ लोग लड़की के देवी होने का दावा भी करते हैं लेकिन उसको केवल और केवल इंसान नहीं मानते। उसको लड़के के बराबर नहीं मानते। उसकी शादी के लिये उतनी ही समान आवश्यकता नहीं स्वीकारते जितनी लड़के की होती है। अजीब और दुखद बात यह है कि यह बात लड़के वाला ही नहीं खुद लड़की का परिवार भी मानता है कि लड़की लड़के से छोटी कमतर कम पढ़ी लिखी कमज़ोर कम हैसियत वाली कम प्रभावशाली कम कमाने वाली कम सामाजिक कम सहेली दोस्त वाली कम मोबाइल चलाने वाली कम खुलकर हंसने वाली कम गैरों से बात करने वाली कम सोशल मीडिया पर एक्टिव रहने वाली कम अपनी मर्जी चलाने वाली कम अपनी पसंद से कपड़े खाना और अपने या परिवार के बारे में फैसला करने की इच्छा रखने वाली ही अच्छी होती है। तथाकथित मान मर्यादा इज़्ज़त छवि बच्चो की चिंता परिवार बिखरने का डर और आन के लिये लड़की के साथ खुद उसका परिवार ही पक्षपात अन्याय और असमान व्यवहार कर हर हाल में वहीं जीने वहीं मरने यानी ‘‘एडजस्ट’’ करने को मजबूर करता है। यह जुल्म और ज़्यादती की इंतिहा ही कही जा सकती है कि समाज के लिये एक लड़की की जान बचाने से अधिक परिवार का सम्मान बचाने को उसका तलाक ना लेने देना अधिक उपयोगी माना जाता है।
      उसकी पसंद के लड़के से शादी करना तो दूर उससे रिश्ता तय करते हुए कई परिवारों में लड़के से मिलाना दिखाना और बात कराना तक वर्जित है। ऐसे ही लवमैरिज या लिवइन रिलेशन को समाज के साथ ही कई राज्य सरकारें अपराध जैसा बनाने का कानून ला चुकी हैं जबकि इससे लड़का लड़की की आपसी समझ पसंद और गुण दोष पहले ही सामने आ जाने से कई लड़कियां शादी के बाद दहेज़ उत्पीड़न मानसिक यातना और हत्या से बच जाती हैं। लानत है ऐसे समाज पर लानत है ऐसी व्यवस्था पर और लानत है ऐसी सोच पर जिसमें पंूजीवाद के चलते लोग अधिक से अधिक पैसा एक मासूम असहाय और कमज़ोर लड़की को दुल्हन बनाकर घर लाकर ब्लैकमेल करके न केवल वसूल लेते हैं बल्कि जब असफल हो जाते हैं तो उसकी जान तक भूखे भेड़ियों की तरह ले लेते हैं लेकिन हमारी सरकार पुलिस और अदालतेें समय पर सख़्त सज़ा देकर अपराधियों को सुधरने के लिये मजबूर तक कई कई साल नहीं कर पाते यानी ये सब न्याय के रास्ते बंद से हो चुके हैं। इसका मतलब यह है कि हमारे समाज के साथ ही पूरे सिस्टम को बदले बिना इस रोग से छुटकारा मिलना असंभव है। अंजुम रहबर ने एक दुल्हन के दर्द को शेर में क्या खूब बयान किया है-
 *उसकी पसंद और थी मेरी पसंद और,* 
 *इतनी ज़रा सी बात पर घर छोड़ना पड़ा।*   
 *नोट-लेखक नवभारत टाइम्स डाॅट काॅम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ़ एडिटर हैं।*