Thursday 10 October 2024

हरियाणा में कांग्रेस की हार

*हरियाणा हार: कांग्रेस भाजपा से नहीं पहले इवीएम से ही लड़ ले...*  
0 कांग्रस नेतृत्व में विपक्ष का इंडिया गठबंधन लोकसभा चुनाव में भाजपा को 400 पार की जगह 240 पर रोकने में सफल रहा तो इवीएम सही था। हिमाचल कर्नाटक व तेलंगाना में कांग्रेस और अन्य कई राज्यों में विपक्ष भाजपा को हराकर सरकार बना ले तो इवीएम से कोई शिकायत नहीं लेकिन जब अपनी ही गल्तियों से विपक्ष हार जाये तो इवीएम पर हार का ठीकरा फोड़ दो। अगर कांग्रेस को इवीएम पर इतना ही शक है तो वह भाजपा से लड़ने की बजाये पहले इवीएम के ही खिलाफ आरपार की लड़ाई क्यों नहीं लड़ती? हम यह दावा नहीं कर रहे कि मोदी सरकार इतनी ईमानदार है कि इवीएम में सेटिंग कर नहीं सकती या तकनीकी तौर पर ऐसा हो नहीं हो सकता। कांग्रेस के भ्रमित होने पर सवाल उठता है।      
 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
कांग्रेस को ऐसा लग रहा था कि वह अपने बल पर हरियाणा में अकेले लड़कर बहुमत की सरकार बना लेगी। संसदीय चुनाव में उसने 10 में से 5 लोकसभा सीट जीतकर ऐसा मान लिया था। सारे एग्ज़िट पोल भी यही बता रहे थे। पहलवान किसान और जवान जिस तरह से हरियाणा में भाजपा सरकार से नाराज़ थे। उससे भी कांग्रेस को यह अहसास हो चला था कि वह आराम से चुनाव जीतने जा रही है। महंगाई बेराज़गारी और भ्रष्टाचार का ग्राफ भाजपा राज में जिस तेज़ी से उूपर जा रहा था उससे कांग्रेस को पूरा भरोसा हो चुका था कि इस बार सत्ता उसके पास आना तय है। चुनाव से पहले जो सर्वे हो रहे थे उनमें भी कांग्रेस का पलड़ा साफ भारी नज़र आ रहा था। सोशल मीडिया के साथ ही भाजपा समर्थक माने जाने वाला गोदी मीडिया तक दबी ज़बान में कांग्रेस की भाजपा पर बढ़त को छिपा नहीं पा रहा था। यही वजह थी कि कांग्रेस गलतफहमी खुशफहमी अति आत्मविश्वास और हरियाणा के प्रदेश नेतृत्व की ज़िद के सामने जाटों के जातिवाद का शिकार हो गयी। 
कांग्रेस प्रदेश मुखिया भूपंेद्र हुड्डा उनके विरोधी गुट के सुरजेवाला और दलित नेत्री शैलजा आपस में ही लड़ते रह गये और भाजपा व संघ ने अपने 36 सहयोगी संगठनों घर घर पहुंच मैदान मैदान शाखाओं राज्य व केंद्र की सत्ता पुलिस सीबीआई ईडी मीडिया कोर्ट चुनाव आयोग और काॅरपोरेट के अकूत धन के साथ साम दाम दंड भेद के बल पर हारी हुयी बाज़ी जीत में बदल दी। भाजपा ने जिस शातिर ढंग से चुनाव से 6 माह पहले मनोहर खट्टर को हटाकर पिछड़ी जाति से आने वाले नायाब सिंह सैनी को सीएम बनाकर राज्य के 40 प्रतिशत से अधिक पिछड़ों को खुश किया उसको कांग्रेस समझ ही नहीं पायी। इसके साथ ही कांग्रेस ने जनहित की 7 गारंटी देकर राज्य की जनता को लुभाना चाहा तो भाजपा ने उसके जवाब में 20 संकल्प लाकर कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया। इतना ही नहीं भाजपा ने कई आकर्षक योजनायें वो भी लागू कर दीं जिनको मुफ्त की रेवड़ी बताकर कभी पीएम मोदी विपक्ष पर सरकारी ख़ज़ाना लुटाने का आरोप लगाया करते थे। भाजपा ने मौका देख बलात्कारी बाबा राम रहीम को चुनाव से ठीक पहले पैरोल दिलाकर उससे अपने पक्ष में पूरी बेशर्मी से वोट देने की अपील भी करा दी। बाबा के अधिकांश भक्त दलित माने जाते हैं। 
इससे भाजपा को जाटव वोट 35 प्रतिशत तो अन्य दलित वोट 46 प्रतिशत तक मिल गया। जबकि कांग्रेस लोकसभा की तरह इस वोट को एकतरफा अपना मानकर चल रही थी। इतना ही नहीं भाजपा ने कांग्रेस के राज्य नेतृत्व के जाट होने की वजह से उसको मात्र 22 प्रतिशत जोटों की पार्टी का तमगा बखूबी लगा दिया। जिस तरह से भाजपा यूपी में सपा को यादव व मुसलमानों की पार्टी होने का लेबल लगाकर दो बार से चुनाव जीत रही है। उसी तरह से उसने हरियाणा में कांग्रेस के जाटों के खिलाफ अन्य 36 जातियां जिनमें अगड़े पिछड़े और दलित शामिल थे उन सबको अपने साथ एक प्लेटपफाॅर्म पर जमा कर लिया। हद तो यह हो गयी कि जिस जाट बिरादरी के बल पर कांग्रेस हरियाणा चुनाव जीतने का सपना देख रही थी उसमें भी भाजपा ने 29 प्रतिशत की सेंध लगा दी और कई जाट बहुल सीटें अन्य जातियों के ध्रुवीकरण से जीत लीं। जिस मुसलमान को कांग्रेस के साथ एकतरफा होने का दावा किया जाता है वह भी उसके साथ केवल 59 प्रतिशत गया और बाकी भाजपा सहित अन्य दलों में बंट गया। इसके साथ ही भाजपा का हिंदुत्व का कार्ड तो अन्य सब मुद्दों पर भारी था ही जिसका कोई तोड़ कांग्रेस के पास नहीं था। 
अब बात करते हैं कि कांग्रेस जीत के प्रबल आसार के बावजूद चुनाव हार गयी तो इसके लिये इवीएम को कसूरवार क्यों बताया जा रहा है? सच तो यह है कि कांग्रेस आज भाजपा के मुकाबले बेहद कमज़ोर पार्टी है वह क्षेत्रीय दलों से भी काफी पीछे है। उसके साथ 70 साल के राज के आरोपों के साथ ही सत्ता का घमंड जुड़ा हुआ है। उसके साथ परिवारवाद अल्पसंख्यकवाद और करप्शन का दाग लगा हुआ है। वह पार्टी के वफादार ईमानदार और जनाधार वाले नेताओं की बजाये चापलूसी चमचागिरी और परिवार पूजा करने वालों को अधिक वेट आज भी देती है। कांग्रेस हाईकमान राज्य के अपने ही बड़े नेताओं के सामने बार बार झुक जाता है। जिसका खुमियाज़ा उसको राजस्थान छत्तीसगढ़ एमपी और अब हरियाणा में भुगतना पड़ा है। कांग्रेस के कुछ नेता उदार हिंदूवाद के समर्थन में खुलेआम बोलते रहते हैं जबकि इसका लाभ भाजपा को होता है। जिस तरह से हिमाचल में उसके नेता विक्रमादित्य ने कई बार भाजपा की भाषा बोली उससे उसके परंपरागत समर्थक मुसलमान ही नहीं सेकुलर हिंदू भी नाराज़ होते हैं। 
    कांग्रेस शुरू से ही गठबंधन बचती रही है। लेकिन 2004 से उसने गठबंधन केंद्र में मजबूरी में किया लेकिन राज्यों में जहां वह कमज़ोर थी वहां तो गठबंधन को तैयार हुयी लेकिन जहां मज़बूत थी वहां उसने क्षेत्रीय दलों को भाव नहीं दिया। हरियाणा में उसको भाजपा से मात्र 0.85 प्रतिशत वोट कम मिले हैं। जबकि संसदीय चुनाव मंे उसकी सहयोगी आम आदमी पार्टी ने 1.79 वोट लिये हैं। ऐसे ही कुल मिलाकर अन्य छोटे दलों ने लगभग 20 प्रतिशत वोट लिये हैं। इनमें से कुछ दल प्रयास करने पर कांग्रेस के साथ आ सकते थे लेकिन सत्ताधारी होने और उसके साथ गठबंधन में धोखा खाने और हवा उसके खिलाफ होने से वे भाजपा के साथ जाने को किसी कीमत पर तैयार नहीं थे। अगर कांग्रेस इन छोटे दलों को 5 से 10 सीट दे देती तो वे तो दो चार ही जीत पाते लेकिन कांगे्रस जो 15 से 20 सीट मात्र 2 से 5 हज़ार वोटों के मामूली अंतर से हारी है उनको जीतकर बाज़ी पलटी जा सकती थी। यही वजह है कि कांग्रेस की इस अकड़ नासमझी और ज़िद की उसके सहयोगी सपा शिवसेना और नेशनल कांफ्रेस ने आलोचना भी की है। अभी भी समय है कि कांग्रेस इवीएम पर सारा ज़ोर न देकर अपनी सोच रण्नीति और विचारधारा पर फिर से विचार करे। कांग्रेस के लिये ग़ालिब का एक शेर कितना सटीक है-
0 उम्रभर ग़ालिब यही भूल करता रहा,
 ध्ूाल चेहरे पे थी आईना साफ़ करता रहा।  
 *नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ़ एडिटर हैं*।

Thursday 3 October 2024

फर्जी मुठभेड़

लाॅ एंड आॅर्डर बनाम रूल आॅफ़ लाॅ, क्यों बढ़ रहे हैं एनकाउंटर?
0 पिछले दिनों तीन अलग अलग राज्यों में विभिन्न अपराधों के आरोपियों के विवादित एनकाउंटर हुए हैं। इन मुठभेड़ों को वहां की सरकारों ने वास्तविक बताकर लाॅ एंड आॅर्डर बनाये रखने के लिये ज़रूरी बताया तो विपक्ष ने रूल आॅफ़ लाॅ की दुहाई देकर इनको फ़र्ज़ी बताते हुए संविधान लोकतंत्र और सरकार की असफलता बताया है। पहले ऐसे विवादित एनकाउंटर माओवादी और आतंकवादी हिंसा से ग्रस्त राज्यों में या माफियाआंे के अंडरवल्र्ड शूटर के नाम पर अकसर होते थे। अन्य राज्यों में ऐसी मुठभेड़ अपवाद के तौर पर होती थी। लेकिन हैदराबाद में वेटनरी डाॅक्टर की रेप के बाद हत्या होने पर उसके सभी आरोपियों को एनकाउंटर में जब मारा गया तो काफी विरोध और दूसरी तरफ स्वागत भी हुआ। इसके बाद यूपी सहित अनेक भाजपा शासित व कुछ विपक्षी सरकारों के राज्यों में यह आम बात हो गयी।       

 *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     महाराष्ट्र के बदलापुर कांड के आरोपी को जब पुलिस ने यह कहकर मुठभेड़ में मारा कि वह पुलिस की पिस्टल छीनकर हमला कर रहा था तो हाईकोर्ट ने भारी नाराज़गी दर्ज करते हुए सरकार से कई चुभते हुए सवाल किये। तमिलनाडु में एक हिस्ट्रीशीटर को इसी तरह के विवादित एनकाउंटर में मारा गया। ऐसे ही यूपी में भाजपा सरकार के बनने के बाद लगभग 200 एनकाउंटर और 6000 से अधिक हाफ एनकाउंटर हो चुके हैं। हाफ एनकाउंटर में आरोपी के पैर पर गोली मार दी जाती है। सुल्तानपुर डकैती कांड के यादव जाति के मुख्य अभियुक्त को जब पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया तो सपा नेता अखिलेश यादव ने इस पर ज़बरदस्त विरोध दर्ज कराया। इसके बाद मामले को संतुलित करते हुए पुलिस ने ख़बर दी कि ठाकुर जाति से जुड़ा इसी मामले का एक अन्य अभियुक्त भी मुठभेड़ में मारा गया। पहले राज्य में इस तरह के विवादित एनकाउंटर की शुरूआत मुसलमान आरोपियों से हुयी थी। बाद में इसका दायरा बढ़कर दलित पिछड़े ब्रहम्ण गरीब कमज़ोर और राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने तक पहुंच गया। 
यही हाल किसी अपराध के आरोपियों के घर दुकान या उनसे जुड़ी इमारत पर बुल्डोज़र चलाने को लेकर हुआ है। कहने का मतलब यह है कि किसी भी गलत काम की शुरूआत या अधिकता भले ही किसी धर्म विशेष या जाति के साथ शुरू हो लेकिन बाद में समाज के दूसरे लोग भी उस अन्याय अत्याचार और पक्षपात का शिकार हुए बिना नहीं बच सकते। वन नेशन वन इलैक्शन से अब चर्चा वन नेशन वन पुलिस स्टेशन तक आ गयी है। इसमें कहा जाता है कि राज्य चाहे जो हो वहां पुलिस स्टेशन का एनकाउंटर का तरीका लगभग एक जैसा ही क्यों होता है? हर एनकाउंटर के बाद पुलिस एक ही कहानी दोहराती नज़र आती है जिसमें एक अपराध का आरोपी होता है। पुलिस उसको पता नहीं क्यों हर बार रात के अंध्ेारे में ही क्राइम सीन क्रिएट करने या अपराध में प्रयोग हुए हथियार बरामद करने या फिर चोरी डकैती का सामान बरामद करने को सुनसान इलाके में ले जाती है। उस आरोपी पर कई संगीन जुर्म के केस पहले से दर्ज होते हैं। इसके बाद वह आरोपी पुलिस का हथियार छीन लेता है। जबकि बिना प्रशिक्षण के कोई अपराधी पुलिस का हथियार न तो अनलाॅक कर सकता है और ना ही उसको चला सकता है। 
        कई बार पुलिस यह भी दावा करती है कि उसने आरोपी को आत्मसमर्पण करने के लिये कहा लेकिन वह पुलिस पर अपने तमंचे से गोली चलाने लगा। मजबूरन पुलिस ने आरोपी पर जवाबी गोली चलाई और आरोपी मारा गया। बाॅम्बे हाईकोर्ट ने इन जैसी समानताओं को लेकर ही पुलिस से बार बार सवाल पूछे हैं। हैरत की बात यह है कि इस तरह की मुठभेड़ों में हमेशा आरोपी मारा जाता है जबकि पुलिस या तो साफ बच जाती है या हल्की व मामूली चोट खाती है। सुप्रीम कोर्ट भी इस तरह के विवादित एनकाउंटर्स को लेकर कई बार राज्य सरकारों पुलिस और जांच एजंसियों को फटकार लगा चुका है। कोर्ट ऐसे मामलों में अनिवार्य रूप से रिपोर्ट दर्ज कर जांच करने और कोर्ट की गाइड लाइंस को हर हाल में लागू करने को भी कई बार कह चुका है। लेकिन जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के मना करने के बावजूद बुल्डोज़र चल रहा है उसी तरह से एनकाउंटर भी रूक नहीं रहे हैं। एनकाउंटर की गहराई में जाकर देखेंगे तो आप पायेंगे कि इनके पीछे भी राजनीति हो रही है।
     फर्जी मुठभेड़ों के नाम पर कुछ सरकारें यह धारणा बनाने में सफल हैं कि इससे अपराधियों में भय पैदा होगा और आगे दूसरे अपराधी अपराध करने से डरेंगे। उनका यह भी दावा है कि कुछ खास वर्ग धर्म या जाति के लोग ही अपराध करते हैं। वे जनता के एक भ्रमित वर्ग की इस सोच को भी न्यायोचित साबित करने में लगी हैं कि इससे हाथो हाथ न्याय हो रहा है। तथाकथित गैर कानूनी बुल्डोज़र जस्टिस भी इसी धारणा का विस्तार है। इससे सरकारों को वोट ना मिलने का डर भी नहीं रहा है। उल्टा उनके इस गैर कानूनी पक्षपाती और संविधान विरोधी काम से उनका कट्टर समर्थक उनको पहले से अधिक बढ़चढ़कर वोट दे रहा है। लेकिन वह यह भूल गया है कि जब समाज से संविधान कानून और निष्पक्षता का राज खत्म होगा तो आज नहीं तो कल वह भी उसका शिकार बनेगा। कई सरकारें यह दावा भी करती है कि ऐसा करने से लाॅ एंड आॅर्डर सुधर रहा है और अपराध पहले से कम हो रहे हैं। जबकि केंद्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्योरो के आंकड़े इस दावे को झुठला रहे हैं। 
       सच तो यह है कि हमारी पुलिस कोर्ट और जांच एजंसियां जिस कछुवा गति से काम करती हैं उससे लोगों का उनसे भरोसा उठता जा रहा है। वे गैर कानूनी होने के बावजूद ऐसे एनकाउंटर और आरोपियों के घरों पर बुल्डोज़र चलाये जाने को ही न्याय और समस्या का सही हल मान रही हैं। केंद्रीय जांच एजसियां मेन स्ट्रीम मीडिया और भाजपा विपक्ष शासित राज्यों में जिन अपराधों के होने पर एक्टिव हो जाती हैं। वहीं भाजपा शासित राज्यों में वह रेप के अपराधियों को लेकर सज़ा पूरी होने से पहले जेल से छोड़ने उनका ज़मानत पर बाहर आने पर माला पहनाकर मिठाई खिलाकर और तिलक लगाकर स्वागत करने में कोई बुराई नहीं समझती। बाबा राम रहीम को वह बार बार चुनाव के समय पर ही पैरोल दिलाती रहती है। करप्शन के आरोप में पकड़े गये लगभग सभी आरोपी विपक्ष के ही होते हैं। उड़ीसा में एक सेना अफसर और उसकी मंगेतर के साथ पुलिस ने जो कुछ किया उस पर मीडिया में इतनी कवरेज नहीं हुयी जबकि कोलकाता रेप मामले में राष्ट्रपति तक ने अपना डर जताया था। याद रखिये पूरा सिस्टम सुधारे बिना एनकाउंटर हल नहीं खुद प्राॅब्लम बन जायेंगे।
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 26 September 2024

पेजर में धमाका

पेजर धमाका: खरीदने के बाद भी मोबाइल पर कं0 का कंट्रोल?
0 हमास के बममेकर याहिया अब्बास के मोबाइल पर 5 जनवरी 1996 को उसके अब्बा की काॅल आई। उसने जैसे ही काॅल रिसीव की उसके सेल फोन में ज़ोरदार धमाका हुआ और उसकी मौत हो गयी। बाद में इस्राइली सुरक्षा एजेंसी शिन बेट ने बताया कि याहिया के मोबाइल में आरडीएक्स लगाया गया था जिसको रिमोट से आॅप्रेट करके विस्फोट किया गया। उस दिन के बाद से ही हमास मोबाइल की जगह सुरक्षित समझे जाने वाले पेजर प्रयोग करने लगा था। आरोप है कि इस्राइल ने इनमें भी अपनी शैल कंपनी के ज़रिये बैट्री के साथ तीन ग्राम विस्फोटक लगाने मंे कामयाबी हासिल कर पिछले दिनों लेबनान में एक साथ 3000 पेजर में विस्फोट कर 9 लोगांे की जान ले ली जबकि 2750 लोग घायल हैं। सवाल है कि क्या आज के दौर में मोबाइल सेफ है?      
  *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
लेबनान में एक साथ हज़ारों पेजर्स में एक संदेश भेजकर विस्फोट कर हज़ारों लोगों के घायल होने और दर्जनों के मारे जाने के बाद पूरी दुनिया में यह सवाल उठ रहा है कि क्या मोबाइल में भी इसी तरह से विस्फोट कर किसी दुश्मन देश के लोगों को नुकसान पहंुचाया जा सकता है? तो इसका जवाब है कि तकनीक के ज़रिये आजकल कुछ भी मुमकिन है। सवाल यह भी है कि ताइवान से विस्फोटक पीएनटी लगे पेजर हिजबुल्लाह के पास बिना चैकिंग कैसे पहुंच गये? पूरी दुनिया में हर देश के पोर्ट एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशनों पर स्कैन मशीन लगी हैं जो खासतौर पर विस्फोटक सामाग्री हथियार और नशीली चीजे़ं कुछ सेकंड में पकड़ लेती हैं। इससे यह भी लगता है कि इस मामले में कुछ और देश भी शामिल रहे होंगे? आने वाले समय में अगर जंग में परंपरागत हथियारों और इंसानों का इस्तेमाल न कर तकनीक का ऐसा ही खतरनाक कोई नया प्रयोग कोई देश करे तो हैरत की बात नहीं होगी। जहां तक मोबाइल का सवाल है। यह सब जानते हैं कि सेल फोन इंटरनेट के बिना काम नहीं करता। यही वजह है कि सरकार जब चाहती है कानून व्यवस्था के नाम पर आपके मोबाइल को नेट बंद कर डब्बा बना देती है। यह भी सबको पता है कि बिना बैट्री के भी आपका मोबाइल काम नहीं करता है। लेकिन शायद यह कम लोगों को पता होगा कि खरीदने के बाद भी आपके मोबाइल पर आपका पूरा कंट्रोल नहीं होता है। 
हैकर्स की तो बात छोड़ ही दीजिये आपका मोबाइल बनाने वाली कंपनी ही कानूनी तरीके से आपके मोबाइल में अपडेट भेजकर उसके साॅफ्टवेयर को काबू करती रहती है। ज़ाहिर बात है कि वह चाहे तो आपके मोबाइल को अपने दूर स्थित आॅफिस से ही जाम कर सकती है? अभी हाल ही में कुछ कंपनी के मोबाइल में बड़े पैमाने पर अपडेट करने के बाद स्क्रीन पर हरी सफेद लाइनें आने की थोक में शिकायत आ रही है। कुछ कंपनी इसमें अपना मैनुफैक्चरिंग फाॅल्ट मानकर नाम मात्र का शुल्क लेकर इस फाॅल्ट को सुधार भी रही हैं। लेकिन कुछ ने स्क्रीन निशुल्क बदलने के नाम पर हाथ खड़े कर उल्टा दोष कस्टमर के सर ही यह कहकर मढ़ना शुरू कर दिया है कि आपने मोबाइल को लापरवाही से ज़मीन पर गिराया होगा। इसके बाद कई उपभोक्ता नया मोबाइल लेने को मजबूर हो जाते हैं। यह कंपनी की उन चालों में से एक चाल हो सकती है जिसमें वे कुछ समय पुराने मोबाइल में कुछ एप चलने से रोक देती है जिससे उपभोक्ता ना चाहते हुए नया मोबाइल खरीदे। चलिये यह मामला तो उपभोक्ता और कंपनी का आर्थिक विवाद का है जैसे तैसे हल हो ही जायेगा। 
लेकिन इससे आपके उस बुनियादी सवाल का जवाब मिल जाता है कि मोबाइल कितना सुरक्षित है? जिस तरह से ठग और अपराधी किसी का मोबाइल हैक कर उसको चूना लगा देते हैं क्या मोबाइल निर्माता कंपनी भी अपना ही बनाया मोबाइल लोगों को बेचने के बाद भी अपने नियंत्रण में रखती हैं? लगभग सभी नये मोबाइल में कंपनियां अपनी तरफ से कुछ ऐसे एप भी इंस्टाल करके ज़बरदस्ती दे रही हैं जिनसे मोबाइल की सिक्योरिटी हमेशा ख़तरे में रहती है। अजीब बात यह है कि आप अगर इन एप को डिलीट करना चाहें तो आपका मोबाइल चेतावनी देता है कि अगर आपने ऐसा किया तो फिर मोबाइल पहले की तरह नाॅर्मल काम नहीं करेगा। यह अजीब मनमानी है कि मोबाइल आपका और उसमें कौन से एप काम करेंगे यह कंपनी तय करेगी। अगर आप उनसे छुटकारा चाहें तो मोबाइल काम नहीं करेगा। पेगासस एक जासूसी साॅफ्टवेयर है जो किसी के भी मोबाइल में केवल एक काॅल किये जाने से आॅटोमैटिक ही इंस्टाल हो जाता है। इसके बाद आपके मोबाइल का कंट्रोल सरकार के पास चला जाता है। आप सोच रहे होंगे सरकार को यह सब पता होगा तो वह मोबाइल कंपनियों को यह सब करने क्यों दे रही है? 
      2017 में एप्पल के आई फोन 6 के अपडेट आने के बाद उनके बहुत अधिक स्लो चलने की शिकायतें पूरी दुनिया में सामने आने लगी थीं। उस समय आरोप लगा था कि कंपनी ने यह शरारत जानबूझकर अपना नया आईफोन 7 बेचने की नीयत से की है। यह मामला अमेरिका में कोर्ट में गया और दिसंबर आते आते कंपनी को उसी साल यह स्वीकार करना पड़ा कि हां उसने आईफोन 6 की स्पीड साफ्टवेयर अपडेट से खुद ही स्लो की थी जिससे उसकी पुरानी बैट्री पर अधिक लोड ना पड़े और वो चलना बंद ना कर दे। लेकिन उसकी इस दलील को अदालत ने नहीं माना और उसको ग्राहकों को निशुल्क इन पुराने फोन को ठीक करने के आदेश दिये। एप्पल की इससे दुनिया के अनेक देशों में बदनामी और कानूनी कार्यवाही बढ़ते जाने से बहुत किरकिरी होने लगी तो कंपनी पुराने फोन की बैट्री अपने खर्च पर बदलने को तैयार हुई। फ्रांस में भी यह नियम है कि अगर किसी मोबाइल कंपनी ने किसी तरह से अपने बेचे गये मोबाइल में कोई कमी पैदा की तो उसको अपनी कुल टर्न ओवर का पांच प्रतिशत हर्जाना सरकार को देना होगा। इटली में सैमसंग के मोबाइल में भी अपडेट के बाद कुछ इसी तरह की शिकायतें सामने आने लगी थीं। 
इसके बाद वहां की सरकार ने जांच कराकर कंपनी को दोषी पाया और कंपनी पर जुर्माना लगा दिया। फोन कंपनियां मोबाइल बेचने के बाद अपने विज्ञापन भी बेचे हुए फोन में बिना खरीदार की अनुमति के भेजती रहती हैं। साथ ही अपडेट भेजकर स्क्रीन खराब होने पर उसको निशुल्क सही करने की बजाये हार्डवेयर डैमेज होने का बहाना बनाकर ठीक करने से साफ मना कर देती हैंे। हमारी सरकार को भी चाहिये कि मोबाइल कंपनियों के हितों के साथ ही उपभोक्ताओं की सुरक्षा व हित भी देखे।
 0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Thursday 19 September 2024

यू टर्न सरकार

100 दिन की एनडीए सरकार, अबकि बार यूटर्न सरकार!
0 2014 और 2019 के बाद 2024 में केंद्र में जो सरकार बनी एक तो वह मोदी सरकार नहीं भाजपा सरकार नहीं एनडीए सरकार है। एक समय था जब मोदी जो चाहते थे जो बोलते थे और जो सोचते थे वही होता था। दरअसल 2002 के भयंकर दंगों के बाद गुजरात का सीएम बनने से लेकर दो बार पीएम बनने के बाद मोदी ने कभी किसी से सलाह मश्वरा या विरोध की परवाह किये बिना अपने तौर तरीकों से सरकार चलाई है। ऐसा पहली बार हुआ है जब संसद में उनको न केवल अपने सहयोगी दलों की सहमति लेनी पड़ रही है बल्कि विपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में इतना मज़बूत हो चुका है कि किसी भी मुद्दे पर जब वह सरकार को घेरता है तो सरकार को उसकी सुननी पड़ती है, नतीजा यह है कि यह सरकार अब तक 10 बार यूटर्न ले चुकी है।       
*-इक़बाल हिंदुस्तानी*
     अपने पिछले कार्यकाल में मोदी सरकार ने जिस मनमाने तरीके से अचानक रात आठ बजे टीवी पर राष्ट्र के नाम संदेश देकर मात्र चार घंटे के नोटिस पर कोरोना महामारी से निबटने को सख़्त लाॅडाउन और दूसरी बार 1000 व 500 के नोट बंद करने के बाद आनन फानन में बिना पूरी तैयारी किये जीएसटी लागू किया। उससे मोदी सरकार की छवि एक ऐसी सरकार की बनी जो संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली की बजाये राष्ट्रपति शासन की तरह मानो कोई राजा फैसले करता हो। हालांकि किसान आंदोलन के बाद अपवाद के तौर पर एक बार यूपी चुनाव जीतने के लिये मजबूरी में मोदी सरकार को तीन काले कानून वापस ज़रूर लेने पड़े थे लेकिन कश्मीर से धारा 370 सीएए और तीन तलाक कानून ऐसे मामले थे जिन पर मोदी सरकार ने एक बार फैसला कर लिया तो फिर तमाम विरोध और आशंकाओं के बावजूद वह उस पर डटी रही। 2024 के चुनाव के बाद जब भाजपा ने मोदी की गारंटी के नाम पर 400 पार का नारा लगाकर अपनी सीटें पहले की तरह 300 पार भी न करके 240 पर अटक कर मजबूरी में अपने सहयोगी दलों के साथ एनडीए सरकार बनाई तो उनको यह सच स्वीकार करने में समय लगा कि अब वह पहले की तरह मनमाने एकतरफा और गैर लोकतांत्रिक तरीके से फैसले नहीं कर सकते। 
     वक्फ बिल मोदी सरकार बिना एनडीए के अन्य घटकों से चर्चा किये संसद मंे ले आई और इसका अंजाम यह हुआ कि विपक्ष ही नहीं उसके बड़े सहयोगी जदयू और टीडीपी ही उसका साथ देने को यह सोचकर तैयार नहीं हुए कि इससे उनका अपने प्रदेशों में मुस्लिम मतदाता नाराज़ हो सकता है। इस बिल का ड्राफ्ट पढ़कर ही पता चलता है कि सरकार ने इसके बारे में विपक्ष और मुसलमानों को तो दूर अपने सहयोगी दलों को भी क्यों विश्वास में नहीं लिया? मजबूरन सरकार को किरकिरी से बचने को इस बिल को संयुक्त संसदीय समिति को समीक्षा के लिये भेजना पड़ा। कुछ यही हाल इस सरकार का लेटरल एन्ट्री को लेकर हुआ। विपक्ष के नेता राहुल गांधी पहले ही इस सरकार को कुल 90 केंद्रीय सचिवों में तीन ओबीसी दलित और मुस्लिम होने को लेकर घेरते आ रहे थे। ऐसे में जब लेट्रल एन्ट्री पर संसद मंे विपक्ष के साथ एनडीए घटक लोक जनशक्ति पार्टी ने सुर में सुर मिलाकर ज़बरदस्त विरोध किया तो सरकार को बैकफुट पर आकर इसमें पहली बार आरक्षण की व्यवस्था करने का वादा कर हाल में चल रही नियुक्तियों की प्रक्रिया पर यू टर्न लेना पड़ा। ऐसे ही जब भाजपा की बड़बोली सांसद कंगना रानौत ने आरोप लगाया कि किसान आंदोलन के दौरान हत्या और बलात्कार होते थे तो हरियाणा चुनाव सामने देख घबराई भाजपा ने बिना देर किये उनके बयान से स्वयं अलग कर लिया। कश्मीर चुनाव की पहली केंडीडेट लिस्ट ही भाजपा को विरोध होने पर पहली बार वापस लेनी पड़ी। 
      हरियाणा चुनाव की तारीख सभी दलों से चर्चा कर चुनाव आयोग ने 1 अक्तूबर घोषित की थी लेकिन भाजपा ने ही खुद जब हार के डर से इस तारीख का विरोध किया तो उसको यह तारीख बदलनी पड़ी। सरकार की फूड सेफटी स्टैंडर्ड आॅथोरिटी आॅफ इंडिया ने दूध सप्लाई करने वाली कंपनी से पहले ए वन और ए टू दूध का विज्ञापन यह कहकर हटाने को कहा कि इससे उपभोक्ता भ्रमित हो रहे हैं और फिर अमूल के विरोघ के बाद आदेश वापस ले लिया। ओल्ड पेंशन बनाम न्यू पेंशन का विवाद देश में काफी लंबे समय से चल रहा है। 2004 में पहली बार अटल सरकार ने पुरानी पेंशन खत्म कर न्यू पंेशन शुरू की थी लेकिन सरकारी कर्मचारियों की नाराज़गी को देखते हुए विपक्ष ने इस मुद्दे पर चुनाव जीतकर जब भाजपा के सामने बार बार चुनौती पेश की तो सरकार इसमें सुधार करते हुए यूनिफाइड पेंशन स्कीम नाम बदलकर ले आई जिसमें पुरानी पेंशन जैसी यानी अंतिम वेतन का कम से कम 50 प्रतिशत पेंशन मिलने की गारंटी यू टर्न लेते हुए एनडीए सरकार को देनी पड़ी है। डिजिटल ब्राॅडकास्ट बिल संसद में बिना किसी तैयारी के एनडीए सरकार ने पेश कर दिया लेकिन जब इसका यह कहकर विरोध किया गया कि सरकार नियमन के बहाने विरोध की उन आवाज़ों को बंद करना चाहती है जो उसने मुख्य धारा के मीडिया को अपने हिसाब से चलाकर पहले ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता गला घोट रखा है। 
      इसके बाद सरकार के पास कोई चारा नहीं था कि वह यूटर्न लेकर इस बिल को भी ठंडे बस्ते में डालने को मजबूर हो गयी। चुनाव से पहले भाजपा के मुखिया जे पी नड्डा ने एक इंटरव्यू मंे अकड़ते हुए कहा था कि अब भाजपा को आरएसएस की ज़रूरत नहीं रही। संघ अपना सांसकृतिक काम करता है और भाजपा अपना राजनीतिक मिशन स्वतंत्र रूप से चलाती है। लेकिन जब भाजपा 303 से 240 सीट पर आ गयी तो संघ प्रमुख मोहन भागवत को अपना गुस्सा निकालने का मौका मिल गया। इसके बाद सरकार ने यूटर्न लेते हुए न केवल भागवत को खुश करने के लिये उनकी सुरक्षा का स्तर बढ़ाकर जे़ड ग्रेड कर दिया बल्कि सरकारी कर्मचारियों के संघ की शाखा में जाने पर लगी दशकों पुरानी रोक भी हटा दी। आम बजट में वित्तमंत्री ने लांग टर्म केपिटल गेन में भारी परिवर्तन करते हुए भविष्य में बेची जानी वाली संपत्तियों पर प्राप्त लाभ पर महंगाई इंडेक्स की छूट खत्म टैक्स का एलान किया था। लेकिन जब इसका ज़बरदस्त विरोध होने लगा तो इसमें संशोधन कर इसको 23 जुलाई से पहले खरीदी अचल संपत्यिों पर लागू करने से यू टर्न लेते हुए एनडीए सरकार ने दसवीं बार हाथ खींच लिये। कहने का मतलब यह है कि एनडीए सरकार भले ही अपने 100 दिन पूरे होने का दिखावटी जश्न मना रही हो लेकिन इस बार विपक्ष के दबाव में वह यूटर्न सरकार बन गयी है।
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*

Wednesday 11 September 2024

डिजिटल अरेस्ट

सावधान डिजिटल अरेस्ट गै़र कानूनी है, इससे आप बच सकते हैं!
0 साइबर ठगों ने पंजाब के रिटायर्ड डीजीपी जेल अनिल कुमार को दो घंटे डिजिटल अरेस्ट कर उनसे ढाई लाख ठग लिये। बिजनौर ज़िले में ही बैंक आॅफ बड़ौदा की एक मैनेजर को झांसे में लेकर उनसे अपने खाते में बैलेंस ना होने के बावजूद कई लाख आरटीजीएस करा लिया। बिहार के आईएमए मुखिया डा. अभय नारायण सिंह को जालसाज़ों ने एक सप्ताह तक डिजिटल अरेस्ट में रखा और उनसे 123 खातों में 4.4 करोड़ जमा करा लिये। प्रयागराज के एक वकील इनके चंगुल में आने से बच गये तो पटना के एक पत्रकार ने अपनी मां के एकाउंट से गयी रकम इनके पीछे हाथ धोकर पड़ने के बाद अपने पुलिस संपर्कों के बल पर वापस हासिल कर ली। लेकिन सब इतने खुशनसीब नहीं होते हैं। इस लेख में आपको हम बतायेंगे आप डिजिटल अरेस्ट से कैसे बच सकते हैं।        
   *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
         ईडी सीबीआई और इनकम टैक्स विभाग द्वारा कुछ सालों से छापा मारकर बड़े बड़े राजनेताओं को पकड़कर जेल भेजने और उनकी लंबे समय तक ज़मानत ना होने से आम आदमी बिना किसी गल्ती अपराध और नियम कानून तोड़े ही इतना डर गया है कि साइबर ठगों की फर्जी काॅल आने ब्लैकमेल करने और डिजिटल अरेस्ट से बचने को अपना कालाधन ही नहीं अपनी ज़िंदगी भर की ईमानदारी से जमा की गयी पूंजी भी चुपचाप उनके खातों में ट्रांस्फर करने को तैयार हो जाता है। हालांकि सरकार साइबर ठगी को रोकने को 5000 साइबर कामांडो नियुक्त करने जा रही है। इसके साथ ही समय समय पर अखबारों टीवी और सोशल मीडिया पर आरबीआई बड़े बड़े विज्ञापन देकर लोगों को साइबर ठगी से सावधान करता रहता है। सरकार ने माइक्रोसाॅफ्ट से मिलकर पिछले दिनों ऐसी नकली फ्राॅड और बोगस 1000 वैबसाइट्स को बंद किया है। 2023 में सरकार ने 70 लाख फर्जी नंबर भी ब्लाॅक किये हैं। साथ ही नया सिम लेने की प्रक्रिया को काफी सख्त बनाया गया है। लेकिन साइबर ठग हैं कि अपना जाल दिन ब दिन और बड़ा करते जा रहे हैं। 
        आम और कम शिक्षित आदमी की तो बात ही क्या करें जब बड़े बड़े पदों पर बैठे पुलिस और बैंक के अफसर ही साइबर ठगों के झांसे में आ रहे हैं तो हमारी कानून व्यवस्था का क्या हाल होगा आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। कारण चाहे राजनीतिक हो लेकिन देश में ईडी और सीबीआई का डर अपराधियों से अधिक जनता में घर कर चुका है। जब किसी के पास कोई साइबर ठग इन एजंसियों का अफसर बताकर काॅल करता है तो उसके होश उड़ जाते हैं। उसको बताया जाता है कि आपके नाम से एक पार्सल कस्टम विभाग ने पकड़ा है। उसकी हम जांच कर रहे हैं। उसमें ड्रग या हथियार बरामद होने की बात कही जाती है। कई बार किसी के परिवार के युवा को रेप के आरोप में पकड़े जाने का झूठ बोला जाता है। वीडियो काॅल करके एक ठग पुलिस या कस्टम वालों की वर्दी मंे आकर पीड़ित को डिजिटल अरेस्ट करने की बात बताकर डरा देता है। उसको धमकी दी जाती है कि जब तक हम इजाज़त न दें तब तक आप काॅल बंद नहीं करेंगे। लोगों को डराने धमकाने और पैसा एंठने का सिलसिला कई कई घंटे नहीं कई कई दिन तक चलता रहता है। उनको बैंक जाने और अपना पैसा उनके बताये एकाउंट में ट्रांस्फर करने के दौरान व्हाट्सएप चैट पर रहने को मजबूर किया जाता है।
         पैसा जिस खाते में जाता है उससे हाथो हाथ दूसरे तीसरे और दर्जनों यहां तक कि सैंकड़ों खातों में होता हुआ ऐसे लोगों तक पहंुच जाता है जहां से उसकी पुलिस भी वापसी नहीं करा पाती। उसका नाम ही नहीं आधार नंबर पैन कार्ड नंबर पता पिता का नाम और मोबाइल नंबर जब सब कुछ ठीक ठीक बताया जाता है तो वह इंसान सकते में आ जाता है। सवाल यह भी है कि यह सब डाटा उन साइबर अपराधियों को कौन उपलब्ध कराता है? कई बार तो ये ठग परिवार के सभी सदस्यों के नाम उनकी आयु उनके निवास का पता उनकी नौकरी उनकी कंपनी और उनके बैंक खातों की डिटेल भी खुद ही बता देते हैं। इससे डिजिटल अरेस्ट में आने वाला आदमी काॅल सही मानकर सदमें में आ जाता है। इतनी बड़ी बड़ी रकम साइबर ठगों के हवाले कर पुलिस के पास ना जाने वालों का शायद कानून व्यवस्था से विश्वास खत्म होता जा रहा है। 
        सवाल यह है कि इन ठगों से बचा कैसे जाये? हम आपको बताना चाहते हैं कि डिजिटल अरेस्ट का कानून में कोई प्रावधान नहीं है। काॅल आने पर आप इनसे बिल्कुल मत डरिये। बेहतर तो यह होगा कि आप इस तरह के अंजान वीडियो काॅल अपने मोबाइल की सेटिंग में जाकर बंद कर दीजिये। वे आयेंगे ही नहीं। केवल उन लोगों से ही वीडियो काॅल पर बात कीजिये जिनके नाम और नंबर आपके पास पहले से सेव हैं। कई बार खूबसूरत युवती आपको वीडियो काॅल करती है। आप बहककर जल्दी में उससे बात का मज़ा लेने के लिये बिना जान पहचान के उसका काॅल अटैंड कर लेते हैं। यह फाहिशा औरत काॅल अटैंड होने के 5 से 10 सेकंड बाद ही अपने कपड़े उतारने लगती है। आप अभी समझ भी नहीं पाते कि यह क्या हो रहा है? उधर स्क्रीन रिकाॅर्डिंग चलती रहती है। इसके बाद किसी और के फोटो पर आर्टिफीशियल इंटेलिजैंस या डीप फेक की मदद से आपका चेहरा लगाकर एक फर्जी पोर्न वीडियो तैयार कर आपको ब्लैकमेल करने को आपके पास भेज दिया जाता है। आपको धमकी दी जाती है कि या तो इस एकाउंट में इतनी रकम फौरन भेज दो नहीं तो आपका यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया जायेगा। 
          अधिकांश लोग इससे बेहद घबरा जाते हैं। वे पोर्न वीडियो की बात सुनकर अपने परिवार और पुलिस से भी यह शेयर करने से शर्माते हैं। लेकिन अगर आपने एक बार ब्लैकमेल होकर इन ठगों को पैसा दे दिया तो यह समझ लीजिये फिर यह सिलसिला खत्म नहीं यहां से शुरू होता है। इसके बाद आपका बैंक खाता खाली होने के बाद ये जेवर घर का सामान ज़मीन जायदाद और दोस्तों से उधार लेने को मजबूर कर लगातार पैसे की वसूली करते रहते हैं। जब तक आप जागरूक नहीं होंगे निडर नहीं बनेंगे और इनके झांसे में आने से इनकार नहीं करेंगे तब तक साइबर ठगी रूकने वाली नहीं है। भूलकर भी अपना ओटीपी डेबिट क्रेडिट कार्ड का सीवी नंबर पास वर्ड गूगल पे पेटीएम और अन्य पास वर्ड इनको लाख पूछने डराने ध्मकाने और गुमराह करने पर भी नहीं दें। इनके कहने से कोई एप डाउन लोड नहीं करना है। 2019 में साइबर क्राइम के 26000 केस दर्ज हुए थे लेकिन 2023 में ये बढ़कर 15 लाख हो चुके हैं। जब भी कभी भूल या धोखे से ठगे भी जायें तो बैंक और पुलिस के साथ ही 1930 नंबर पर तत्काल शिकायत ज़रूर कीजिये। ऐसा करने से हो सकता है आपका पैसा वापस मिल जाये।
0 मुश्किल कोई आन पड़े तो घबराने से क्या होगा,
 जीने की तरकीब निकालो मर जाने से क्या होगा।
 नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।

Tuesday 3 September 2024

बुलडोजर का अन्याय

*बुलडोज़र की सियासत जस्टिस नहीं अन्याय ही कर सकती है!* 
0 भाजपा की कुछ राज्य सरकारें किसी पर किसी गंभीर अपराध का आरोप लगने मात्र पर ही उसके घर दुकान या दूसरी इमारत पर बुलडोज़र कई साल से चलाती आ रही हैं। अगर आरोपी मुसलमान या विपक्षी दल से जुड़ा हो तो बुल्डोज़र की स्पीड और तबाही और तेज़ हो जाती है। कांग्रेस की तेलंगाना सरकार पर भी ऐसे ही आरोप हैं। ‘बुलडोज़र जस्टिस’ के नाम पर तबाही, बरबादी, अन्याय, मनमानी और अत्याचार का यह सिलसिला यूपी से शुरू हुआ था। देखते ही देखते यह कानून विरोधी अभियान भाजपा शासित दूसरे राज्यों में भी पहुंच गया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट में यूपी सरकार ने सुनवाई के दौरान अपना पक्ष रखते हुए दावा किया कि ‘बुलडोज़र जस्टिस’ का अपराध से कभी कोई रिश्ता नहीं होता है। *-इक़बाल हिंदुस्तानी*
       सुप्रीम कोर्ट ने देशभर में बुलडोज़र की कार्यवाही के खिलाफ एक याचिका सुनते हुए कई सख्त टिप्पणियां की है। जस्टिस विश्वनाथन और जस्टिस गवई ने यहां तक कहा कि अगर आरोप साबित भी हो जाये तो भी किसी अपराधी के घर दुकान पर बुलडोज़र नहीं चलाया जा सकता। जुर्म साबित होने पर अपराध की जो सज़ा कानून में पहले से तय है वही दी जा सकती है। मतलब अगर किसी ने हत्या या रेप किया है तो उसको भारतीय न्याय संहिता मंें दर्ज जेल या फांसी का दंड ही दिया जा सकता है। उसके किसी भवन पर बुलडोज़र चलाने का का अधिकार किसी को नहीं है। फिलहाल तो अदालत ने इस मामले पर सुझाव आमंत्रित किये हैं। लेकिन सुनवाई की अगली तारीख पर कोर्ट इस मामले में व्यापक दिशा निर्देश केंद्र व सभी राज्यों के लिये जारी कर सकता है। ऐसा लगता है कि सबसे बड़ी अदालत ने बुलडोज़र जस्टिस के नाम पर देश में हो रही नाइंसाफी को रोकने का मन बना लिया है। बुलडोज़र इतना लोकप्रिय होने लगा था कि किसी सीएम को बुलडोज़र बाबा तो किसी मुख्यमंत्री को बुलडोज़र मामा कहा जाने लगा। इतना ही नहीं बुलडोज़र चुनाव रैली में प्रदर्शित किया जाना लगा और यह प्रतिशोध और विरोधियों को सबक सिखाने का एक भयानक प्रतीक बनकर उभर आया। 
       कुछ लोग बुलडोज़र पर सवार होकर चुनावी सभाओं में जाते देखे जाने लगे। इतना ही नहीं कुछ लोग दूसरों के घर बुलडोज़र से नेस्तो नाबूद होने पर जश्न मनाने लगे। कुछ लोग यह समझ रहे थे कि बुलडोज़र केवल अल्पसंख्यकों और विपक्षी दल के नेताओं के घर पर ही चलेगा। लेकिन धीरे धीरे इसका दायरा बढ़ता गया और यह उन लोगों को भी अपने लपेटे में लेने लगा जो यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि जिस दल के वे समर्थक हैं उसकी सत्ता उन पर बुलडोज़र का कहर बरपा सकती है। दरअसल जब सत्ता शक्ति के नशे में चूर होकर बुलडोज़र का इस्तेमाल न्याय के नाम पर अन्याय करने लगती है तो वह अपने पराये का अंतर करना भी भूल जाती है। यही वजह थी कि एक दिन ऐसा आया जब गोमती रिवर फरंट के सौंदर्यकरण के नाम पर यूपी की राजधानी में थोक मंे सैंकड़ो मकान तोड़े जाने लगे जिनमें हिंदू मुसलमान और दूसरे सभी वर्गों दलों व जातियों के लोग शामिल थे। अब जो लोग पहले दूसरों के घरों को टूटता देख खुश होकर तालियां बजा रहे थे अब अपनी बारी आने पर सरकार को कोसकर आंसू बहा रहे थे। इस दौरान यह भी हुआ कि जुर्म किसी ने किया और मकान किसी और का तोड़ दिया गया। पति की गल्ती की सज़ा पत्नी और बेटे की खता का दंड पिता को दिया जाने लगा। हद तो तब हो गयी जब एक किरायेदार ने जुर्म किया और उसके मालिक का मकान ज़मींदोज़ कर दिया गया। 
         विडंबना यह है कि शासन के प्रधनमंत्री आवास योजना में बने कई मकान भी इस दौरान तोड़ दिये गये। भाजपा सरकारों से प्रेरणा लेकर तेलंगाना की कांगे्रस सरकार ने भी डेढ़ सौ से अधिक इमारतें पिछले बुलडोज़र चलाकर तोड़ डालीं हैं। आरोप है कि इसके लिये कानूनी प्रावधान का पूरी तरह से पालन नहीं किया गया है। कानून के जानकारों का कहना है कि एक तो किसी आरोपी नहीं अपराधी का भी मकान तोड़ने का कानून में प्रावधान ही नहीं है। दूसरी बात कानून का काम न्याय करना और अपराधी को जेल भेजकर सुधारना होता है ना कि बुलडोज़र से किसी का मकान तोड़कर बदला लेना। यह भी समझने की बात है कि न्याय करने का काम सरकार या पुलिस व प्रशासन का है ही नहीं। यह काम तो केवल कोर्ट का है। जहां तक सरकारी ज़मीन पर अवैध कब्ज़ा कर भवन निर्माण का मामला है। उसके लिये हर राज्य सरकार के अलग अलग कानून हैं। इन कानूनों के तहत पहले एक सप्ताह से लेकर एक माह तक का आरोपी को नोटिस दिया जायेगा। इस दौरान आरोपी अपना पक्ष रखने स्थानीय निकाय प्रशासन या कोर्ट जा सकता है। जब तक कोर्ट उसका मामला सुनकर अपना निर्णय नहीं देता तब तक उसका भवन बुलडोज़र से गिराया नहीं जा सकता। 
          इंस्टैंट जस्टिस ही बुलडोज़र जस्टिस यानी हाथो हाथ बदले का भीड़ या किसी राजा महाराजा का अन्याय कहलाता है। जहां तक नोटिस का मामला है। यह शिकायतें आम हैं कि सरकार के इशारे पर अधिकारी नोटिस बैक डेट में बनाकर अपने पास दबाये रखकर या बुलडोज़र चलाने के दौरान उस मकान की दीवार पर चस्पा कर दो गवाह या अन्य तस्वीर व वीडियो से कानूनी औपचारिकता पूरी कर लेते हैं। नोटिस के दो बड़े मकसद होते हैं। एक तो यह कि आप विवादित जगह को छोड़कर सुरक्षित कहीं और चले जायें और अपना जीवन यापन का सामान टूटने से बचाने के लिये वहां से समय रहते निकाल लें। दूसरा मकसद यह होता है कि अगर कोई छोटा या मामूली कानूनी उल्लंघन हुआ है तो उसको मानचित्र के हिसाब से सही कर के भूल सुधार कर लें। रोटी कपड़ा और मकान तो संविधान ने भी मौलिक अधिकार माने हैं। साथ ही यूपी आवास विकास के एक मामले में फैसला देते हुए काफी पहले सुप्रीम कोर्ट आवास के अधिकार को बुनियादी अधिकार बताकर तब तक किसी का आवास ना तोड़ने का आदेश दे चुका है। जब तक कि उसको वैकल्पिक आवास उलब्ध ना करा दिया जाये। सुनवाई पूरी होने पर सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसला दे देखना यह होगा कि जो सरकारें वोटबैंक की राजनीति की खातिर बुलडोज़र का जानबूझकर मनमाना दुरूपयोग कर रही हैं वे इससे तौब करती हैं या नहीं ? या कोई चोर दरवाज़ा निकाल लेती हैं। 
 *0 लगेगी आग तो आयेंगे कई घर ज़द में,*
*यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ा ही है।*
*नोट- लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर के चीफ एडिटर हैं।*

Thursday 29 August 2024

कोलकाता रेप

*कोलकाता रेप: कानून नहीं व्यवस्था बदलने की जरूरत है!* 
0 12 साल पहले देश की जानी मानी हिंदी वेबसाइट प्रवक्ता डाॅटकाम पर हमने पूरे देश को हिला देने वाले चर्चित और दर्दनाक निर्भया दिल्ली गैंगरेप पर एक लेख लिखा था। उसमें यह आशंका भी व्यक्त की थी कि केवल कानून सख्त कर देने से न केवल बलात्कार नहीं रूकेंगे बल्कि समाज की सोच बदले बिना रेप पीड़ित की जान लेकर सबूत मिटा देने का ख़तरा और अधिक बढ़ जायेगा। दुर्भाग्य से आज नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़े इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि रोज देश में 86 रेप होते हैं। ये हालत तब है जबकि लोकलाज के डर से रेप के वास्तविक 63 प्रतिशत मामले दर्ज ही नहीं होते। 10 प्रतिशत रेप नाबालिग लड़कियों के साथ होते हैं। 89 फीसदी मामलों में बलात्कारी जान पहचान के होते हैं। दुख और चिंता की बात यह है कि फिर भी रेप पर सियासत होती है।
  *-इकबाल हिंदुस्तानी*
      व्यंग्य लेखक हरिशंकर ने कहा है ‘‘बलात्कार को पाश्विक कहा जाता है पर यह पशु की तौहीन है, पशु बलात्कार नहीं करते। सूअर तक नहीं करता। मगर आदमी करता है।’’ कोलकाता में हुए रेप की चैतरफा निंदा के साथ यह सवाल भी उठना चाहिये कि देश के विभिन्न राज्यों के दूरदराज के ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में रोज होने वाले सैकड़ों बलात्कार के मामलों को मीडिया कभी इतनी जोर शोर से क्यों नहीं उठाता? और हर बलात्कार को लेकर सरकार इतनी संवेदनशील क्यों नहीं नजर आती? सारे नेता बलात्कारी को फांसी देने से लेकर चैराहे पर खुलेआम गोली मारने की मांग अब क्यों कर रहे हैं? जब जब वे सत्ता में आते हैं तो ऐसा कानून क्यों नहीं बनाते? सच तो यह है कि कुछ दिन इस मामले की चर्चा होने के बाद सब भूल जायेंगे कि इस मामले के दोषियों का क्या हुआ और वह पीड़िता या उसका परिवार किस हाल में जी रही है? दरअसल मीडिया को औरतों के अधिकारों और सुरक्षा की याद ही तब आती है जब किसी के साथ कोई बड़ा मामला हो जाता है। किसी महिला के साथ बलात्कार या छेड़छाड़ की वीभत्स घटना घटने के बाद मीडिया और सरकार शांत होकर मानो अगली ऐसी ही घटना का इंतजार करते रहते हैं। हकीकत यह है कि बलात्कार, हत्या और दंगे जैसे मामले होते ही इसलिये हैं कि हमारी पूरी व्यवस्था अपराधियों के सामने बेबस नजर आती है। बलात्कार पीड़ित तो क्या आम आदमी भी थाने जाने से डरता है जबकि अपराधी, माफिया या दलाल अकसर पुलिस के साथ मौज मस्ती करते देखे जाते हैं। 
        केस अगर दर्ज हो भी जाये तो अब आगे की जांच और भी मुश्किल है क्योंकि हमारी पुलिस सर्वे में ना केवल समाज के अन्य वर्गा से अधिक करप्ट है बल्कि वह राजनीतिक, धार्मिक, जातिवादी और दूसरे कारणों में भी खूब सबूत दबाती और घड़ती है। छोटे मामलों को तो पुलिस मीडिया में चर्चा ना होने या कम होेने से भाव ही नहीं देती और बड़े अपराधों को हर हाल में दबाना चाहती है क्योंकि जिस थाने में ज्यादा केस दर्ज होते हैं उसके थानेदार को ना केवल एसपी डीएम की डांट खानी पड़ती है बल्कि उसका प्रमोशन तक इस आधार पर रोक दिया जाता है। बलात्कार के मामले में फांसी की सजा कर देने का मतलब है कि रेप पीड़ित की जान का खतरा भी बढ़ जाना। हमारा कहना है कि बलात्कारी को सज़ा हर हाल में मिले सख्त मिले और जल्दी मिले यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है। राजनेताओं धन्नासेठों और प्रभावशाली लोगों के मामलें में पुलिस कानून के अनुसार काम नहीं करती है। जब लोगों का विश्वास ही कानून व्यवस्था से उठ चुका हो तो न्याय कैसे होगा? इसके बाद मेडिकल करने वाले डाक्टर की जेब गर्म कर चाहे जो लिखाया जा सकता है और सरकारी वकील तो शायद होते ही आरोपी से हमसाज़ के आरोप लगे होने के लिये हैं? फांसी या चैराहे पर गोली मारने की बात करने वालों से पूछा जाये कि जिन देशों मे सजा ए मौत है ही नहीं वहां अपराध ना के बराबर क्यों हैं? कई देश हैं जहां आयेदिन अपराधियों को फांसी पर लटकाया जा रहा है वहां आज भी अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहे? 
      जिस देश में आतंकवादी कानून, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम और देशद्रोह एक्ट का खुलकर दुरूपयोग हो रहा हो वहां सजा कड़ी करने से नहीं पूरा सिस्टम ईमानदार और जिम्मेदार बनाने से ही सुधार हो सकता है। समाज को भी नैतिकता और चरित्र का पाठ सिखाना होगा। हमारे नेता खुद बाहुबल, कालाधन, सत्ता और पुलिस का खुलकर गलत इस्तेमाल करते हैं। आज लगभग सारे नेता ही नहीं अधिकांश अधिकारी, पत्रकार, वकील, उद्योगपति, शिक्षक, व्यापारी, इंजीनियर, डॉक्टर, जज, साहित्यकार और कलाकार से लेकर समाज की बुनियाद समझे जाने वाला हर वर्ग तक आरोपों के घेरे में आ चुके हैं, ऐसे में कानून ही नहीं हमें अपनी सोच और व्यवस्था बदलकर ही ऐसी घटनाओं को रोकने का रास्ता मिल सकेगा क्योंकि इस तरह की घिनौनी वारदात तो मात्र लक्षण हैं उस रोग का जो हमारे सारे सिस्टम और समाज को घुन की तरह खा रहा है। बलात्कारियों को फांसी की सजा, सुनवाई के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने और नये नये कानूनी प्रावधानों पर अमल होता नज़र नहीं आ रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार बलात्कार के मामले बढ़ने के साथ ही इसके अपराधियों को पहले से कम मामलों में दंड मिल रहा है। चार में से केवल एक ही केस में बलात्कार के आरोपी को सजा मिल पाती है। 
        यह हालत तो तब है जबकि बड़ी तादाद में लोग लोकलाज और वकीलों और पुलिस के असुविधाजनक सवालों से बचने के लिये कानूनी कार्यवाही के लिये घर से निकलते ही नहीं। आज बलात्कार के 83 प्रतिशत मामले कोर्ट में लंबे समय से लंबित पड़े हैं जबकि पहले यह आंकड़ा 78 प्रतिशत ही था। 1990 में जहां 41 प्रतिशत रेप केस में अपराधियों को सजा मिल जाती थी वहीं 2000 में यह अनुपात 29.8 प्रतिशत हुआ और 2011 में घटकर 26.6 प्रतिशत रह गया है। एक तर्क और दिया जाता है कि लड़कियां चूंकि भड़काऊ कपड़े पहनकर और आकर्षक मेकअप करके सड़कों पर निकलती हैं। जिससे उनके साथ रेप की अधिकांश घटनाएं उनकी इन हरकतों की वजह से ही होती हैं, जबकि भारत सरकार के आंकड़ें बताते हैं कि गांव में ऐसे मामले अधिक होते हैं और अकसर यह देखने में आया है कि जो लड़कियां अधिक पढ़ी लिखी और आधुनिक होती हैं। उनके साथ बलात्कार का प्रयास करने वाले दस बार उसके बुरे नतीजों के बारे में सोचते हैं। इसके साथ यह भी देखने में आया है कि आधुनिक और प्रगतिशील सोच के लोग ही ऐसी घटनायें होने पर कानूनी कार्यवाही करने में सक्षम होते हैं और साहस भी दिखाते हैं। कहने का मतलब यह है कि पहले बलात्कार जैसे मामलों को सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक स्तर पर जांचा परखा जाना चाहिये तब ही इनका कोई सही हल निकाला जा सकता है।

0 लड़ें तो कैसे लड़ें मुकदमा उससे उसकी बेवफाई का,

 ये दिल भी वकील उसका ये जां भी गवाह उसकी।।
 *0 लेखक नवभारत टाइम्स डाॅटकाम के ब्लाॅगर और पब्लिक आॅब्ज़र्वर अख़बार के चीफ एडिटर हैं।*